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सहज ज्ञानादि गुणों का चिंतन करना ही होगा। और, पारमार्थिक दृष्टि से सोचें तो सिर्फ आत्मज्ञान, आत्मबोध ही मोक्षमार्ग है, शिवपंथ है । समाधिशतक के प्रारंभ में ही कहा गया है -
केवल आतमबोध है, परमारथ शिवपंथ, तामें जिनकी मगनता, सोइ भावनिग्रंथ ।
आत्मबोध में, आत्मज्ञान में मग्नता ही भावसाधुता है ! यदि आत्मज्ञान में मगनता नहीं है तो भावसाधुता नहीं है । भले ही महाव्रतों का पालन करते हों या उग्र तपश्चर्या करते हों... ज्ञानमगनता के बिना भावसाधुता नहीं होती है ।
आतमज्ञाने मगन जो, सो सब पुद्गलखेल, इन्द्रजाल करी लेखवे, मिले न तिहां मनमेल ।
आत्मज्ञान में निमग्न आत्मा, सारे पुद्गल-निर्मित खेलों को इन्द्रजाल समझता है, उसके साथ उनका मन लगता ही नहीं है । एक बार आत्मज्ञान में मगनता का अभूतपूर्व अनुभव होने पर, पुद्गल रचनाओं में मन लगता ही नहीं है । ज्ञानमग्नता का, आत्मरमणता का जो सुख होता है, उस सुख का शब्दों में वर्णन हो ही नहीं सकता है । ज्ञानसार में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने कहा है -
ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म तद्वक्तुं नैव शक्यते ।' ज्ञानमग्न आत्मा का सुख कहा नहीं जा सकता। समत्व के साथ एकत्व का चिंतन :
याद रहें, अपनी बात एकत्व-भावना की चल रही है। भीतर में एकत्व का उत्सव मनाना है, उत्सव का परम आनन्द पाना है, तो एकत्व के साथ समत्व को जोड़ना होगा । एकत्व के साथ समत्व जुड़ता है तब भीतर में उत्सव रचाता है, उत्सव का आनन्द प्रगट होता है । एकत्व के साथ समत्व जुड़ने पर यह शत्रु, यह मित्र', ऐसा भेद नहीं रहता ! यह कंचन, यह कथिर', ऐसा भेद नहीं रहता । शत्रु पर द्वेष नहीं रहता, मित्र पर राग नहीं रहता, कंचन पर राग नहीं रहता, कथिर पर द्वेष नहीं रहता ! तभी एकत्व उत्सवरूप बन कर आनन्दरूप बन जाता है।
एकतां समतोपेता-मेनात्मात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द-सम्पदं नमिराजवत् ।।५।। ग्रंथकार कहते हैं : “आत्मन्, समत्वभाव के साथ तू एकत्व की अनुभूति
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शान्त सुधारस : भाग १
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