________________
गुणों को भूल गयी है, श्रेष्ठ स्व-रूप को भूल गयी है ! उसकी कोई जातपात नहीं होती है, कुल और न्यात नहीं है, नाम और रूप नहीं है... परंतु पुद्गल के संग नाम और रूप धारण कर लिया है ! पुद्गल-माया ने उस पर जादू कर दिया है । आत्मा अपने आपको भूल गयी है -
जात्य-पात्य कुल न्यात न जाकुं, नाम-गाम नवि कोई, पुद्गलसंगत नाम धरावत निज गुण सघलो खोई । यह पुद्गल-संगत ही परभाव-संवृत्ति है । ग्रंथकार उपाध्यायजी इसी परभाव-संवृत्ति को तोड़ने का उपदेश देते हैं । और यह तभी तोड़ने की इच्छा होगी जब जीव समान होगा, पुद्गल-संगत, 'पुद्गल-पिंजरा उसको बंधन लगेगा ! जब तक पुद्गल-संगत अच्छी लगती है तब तक -
पुद्गल के बस हालत-चालत, पुद्गल के बस बोले,
कहूंक बेठा टक-टक जुए, कहूंक नयण न खोले ! हलना-चलना, बोलना... सब कुछ पुद्गल के बस ! आँखें खोलना और बंद करना भी पुद्गल के बस ! मनपसंद भोग भोगना और सुखशैया में सोना, पुद्गल के बस ! और इन्हीं पुद्गल के परवश बन कर भूखे-प्यासे गलियों में पड़े रोते हैं !
मनगमता कहूं भोग भोगवे, सुखसज्या में सोवे,
कहूंक भूख्या तरस्या बाहर, पड्या गली में रोवे ! 'पुद्गल' की पहचान कर लो। परभाव की पहचान कर लो। और उससे मुक्त होने का पुरुषार्थ करो । पुद्गल का बंधन जानो और तोड़ने का प्रबल प्रयत्न करो। इस मनुष्य-जीवन में ही यह प्रयल-पुरुषार्थ कर पायेंगे । पुद्गल-भावों की लालच में फँसना नहीं है। पुद्गल की पहचान कराते हुए श्री चिदानन्दजी सरल शब्दों में कहते हैं : पाणीमांहे गले जे वस्तु, जले अगनि संयोग, पुद्गलपिंड जाण ते चेतन, त्याग हरख अरू सोग । छाया, आकृति, तेजाति सहु, पुद्गल की परजाय, सड़न-पड़न-विध्वंस धर्म ए, पुद्गल को कहेवाय ! मल्या पिंड जेहने बंधे बे, काले विखरी जाय, चरमनयण करी देखीये ते, सहु पुद्गल कहेवाय ।
२५२
शान्त सुधारस : भाग १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org