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अधुना परभावसंवृतिं हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् । क्षणमात्मविचारचन्दन-दुमवातोर्मिरसाश्पृशन्तु माम् ॥४॥
उपाध्यायश्री विनयविजयजी, अपने मन को संबोधित करते हुए कहते हैं - 'ओ मेरे मन ! परभाव के इन आवरणों को चीर करके जरा मुक्त हो ! ताकि आत्म-विचाररूप चंदनवृक्ष की शीतल हवा तुझे स्पर्श कर सके । परभाव के आवरणों को चीर डालो :
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आत्मविचार अब करना है ? अभी तक पुद्गल विचार ही ज्यादा किये हैं । अनन्त जन्मों से पुद्गल-भावों की ही रमणता जीव ने की है ! इसलिए ग्रंथकार ने 'अधुना' शब्द का प्रयोग कर पूछा है : “अब आत्मविचार करना है ? ज्यादा समय नहीं, क्षणम् थोड़ी क्षणों के लिए आत्मविचार कर लो !" ___ और, यदि आत्मविचार करना है तो एक काम अवश्य करना होगा, पुद्गलभाव, कि जो परभाव है, उन पुद्गल-भावों के आवरणों को चीर डालने होंगे । पुद्गल-भावों के आवरणों को नष्ट करने के लिए, पुद्गल-भावों की अनर्थकारिता और भयंकरता समझनी होगी। पुद्गल-गीता में योगी चिदानन्दजी ने कहा है :
काल अनंत निगोदधाम में पुद्गलरागे रहियो, दुःख अनन्त नरकादिकथी तुं अधिक बहुविध सहियो । अपनी आत्मा अनंतकाल निगोदनाम की योनि में रही थी। जहाँ जीव एकेन्द्रिय होता है ! जीव को मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है । वहाँ पर नरक से भी ज्यादा दुःख जीव को सहना पड़ता है और अनंतकाल तक सहे भी हैं ! निगोद में पुद्गलराग के कारण ही रहना पड़ता है ।
पाय अकाम निर्जरा' को बल, किंचित् ऊँचो आयो,
बादर में पुद्गल-रस वशथी काल असंख्य गमायो । सूक्ष्म निगोद में अनन्तकाल जीव जन्म-मरण करता रहा, अनंत दुःख सहन करता है, इससे कर्मों की निर्जरा हुई, अकाम निर्जरा हुई, कर्मों का भार कुछ कम हुआ और जीव बादर निगोद में आया ! सूक्ष्म में से बादर में आया, इतनी उन्नति हुई, परंतु वहाँ भी पुद्गल-रस के कारण असंख्य वर्ष बीता दिये । सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद - दोनों प्रकार वनस्पतिकाय के हैं । आत्मा के
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शान्त सुधारस : भाग १
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