Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 257
________________ हैं, उनसे ममत्व जोड़ते हैं ! अज्ञानी लोग जानते ही नहीं कि शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के विषय, मेरे स्वभावभूत नहीं है, परभाव - रूप है, इसलिए वे उसी विषयों में लुब्ध होते हैं, उन्हीं विषयों को अपने मानते हैं, ममत्व बाँधते हैं और दुःखी होते हैं । जो परद्रव्य होता है, जो पराया द्रव्य होता है, उसको अपना मानने की भूल, बड़ी भूल होती है । दुःखदायी भूल होती है । परद्रव्य को, परपदार्थ को स्वद्रव्य मानना कितना अनर्थकारी है, वह समझाने के लिए ग्रंथकार ने उदाहरण दिया है - परस्त्री को अपनी स्त्री समझना, अपनी मानना | परस्त्री को अपनी स्त्री माननेवालों को जैसा दुःख सहन करना पड़ता है, जैसी पीड़ाएँ सहन करनी पड़ती है; वैसी पीड़ा, परद्रव्य को, परपुद्गल को स्वद्रव्य माननेवालों को भोगनी पड़ती है । 'आत्मद्रव्य ही स्वद्रव्य है, शेष सब परद्रव्य है, यह बात अच्छी तरह समझ लो । कृतिनां दयितेति चिन्तनं, परदारेषु यथा विपत्तये । विविधार्तिभयावहं तथा परभावेषु ममत्वभावनम् ॥३॥ जो मनुष्य दूसरों की औरतों के बारे में यह मेरी औरत है, वैसी कल्पना यदि करता है तो वह दुःखी होता है; वैसे ही जो अपना नहीं है, परभाव है, उसमें ममत्व का खयाल करना, तरह-तरह की पीड़ाओं का कारण होता है । परस्त्री को स्वस्त्री मानना दुःखदायी : जो परभाव है, जो परद्रव्य है, जो अपना नहीं है, उसको स्वभाव मानना, स्वद्रव्य मानना, अपना मानना, भय त्रास और दुःख देनेवाला होता है । इस विषय में एक प्राचीन कहानी बताकर कुछ वर्तमानकालीन सत्य घटना भी बताऊँगा । वसन्तपुर नाम का नगर था। उस नगर के राजा का नाम था शतायुध । उसकी रानी थी ललितादेवी । वह रानी बहुत ही खूबसूरत थी और मोहक व्यक्तित्ववाली थी । चौसठ कलाओं में निपुण थी । परंतु वह चरित्रहीन थी। पति को वह वफादार नहीं थी । I एक दिन वह महल के झरोखे में खड़ी खड़ी राजमार्ग पर नजर फेंक रही थी, उसकी नजर राजमार्ग पर से गुजर रहे एक युवक पर गिरी। उस युवक का रूप और जवानी रानी की आँखों में बस गये। युवक तो चला गया, पर रानी उसके खयालों में खो गयी । उसके मोहपाश में बंध गई । रानी की एक दासी दूर खड़ी, रानी की एक-एक क्रिया को देख रही थी । वह रानी के मनोभाव एकत्व - भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only २४१ www.jainelibrary.org

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