Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 258
________________ समझ गई । वह धीरे से रानी के पास आकर खड़ी रही। रानी ने उससे पूछा : 'अभी जो यहाँ राजमार्ग पर से सुंदर कपड़े पहना हुआ रूपवान युवक गया, वह कौन है ? कहाँ रहता है ? तू उसकी तलाश करके आ, पर चोरी-छिपे ! किसी को मालूम नहीं पड़ना चाहिए ।' यों कह कर रानी ने दासी को अपनी अँगुठी भेंट कर दी । दासी प्रसन्न हो उठी । वह तुरंत उस युवक की जानकारी लेने चली गई । एक घंटे के बाद वह वापस आयी । रानी बड़ी बेसब्री से उसका इन्तजार कर रही थी । दासी ने कहा : 'महारानीजी, वह सुंदर-सलोना युवक तो अपने नगर श्रेष्ठि समुद्रप्रिय का पुत्र ललितांग है । वह पुरुष की ७२ कलाओं में निपुण है । अब आप जैसा कहो, वैसा करूँ । I रानी ने दासी के कान में एकदम धीरे से कहा: 'वह मुझे यहाँ एकान्त में मिले वैसा कुछ कर सकेगी ?' दासी ने कहा : हाँ, हाँ, जरूर मैं उसका मिलन करवा दूँगी । पर इसके पहले आप एक निमंत्रणपत्र लिखकर मुझे दे दो। मैं वह पत्र उसे दे आऊँगी । इसके बाद सब काम जमा दूंगी । रानी ने ललितांग पर प्रेमपत्र लिखकर दासी को दे दिया । दासी ने पत्र ले जाकर ललितांग को दे दिया । ललितांग, रानी का प्रेमपत्र पाकर दिंग रह गया । उसने दासी से कहा : 'कहाँ अन्तःपुर में रहनेवाली रानी और कहाँ मैं एक वणिकपुत्र ! हमारा मिलन अशक्य है ।' दासी ने कहा : 'अशक्य कुछ भी नहीं है ललितांग । मैं सब शक्य कर दूँगी । तू तैयार है ना ?' ललितांग ने हाँ भरी । दासी ने मौका मिलने पर आने का वादा किया और चली गई । ललितांग उसके बाद दिन में तीन बार रानी के महल के सामने से गुजरता है और रानी को देखता है । रानी उसको देखती है । दोनों की निगाहें मिलती हैं। दोनों के चेहरे खिलते हैं और मौन प्रेमालाप होता है। एक दूजे से मिलने के लिए दोनों बेताब हुए जा रहे थे । I नगर में कौमुदी - महोत्सव के दिन आये । राजा ने रानी से कहा : 'चलो, हम जंगल में शिकार के लिए चलें । रानी ने तबीयत का बहाना बनाया और महल में रह गई । उसने दासी को इस मौके का फायदा उठाने को कहा । अन्तःपुर के दरवाजे पर सशस्त्र सैनिक चौबीस घंटे तैनात रहते थे । राजा के अलावा किसी भी आदमी को अन्तःपुर में प्रवेश नहीं मिलता था । दासी ने ललितांग को महल में लाने की योजना बनाई । नगर के बाहर बगीचे में वह एक पालकी लेकर गई । उसने अन्तःपुर के शान्त सुधारस : भाग १ २४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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