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रक्षक से कह रखा था महारानी के आनन्द-प्रमोद के लिए एक यक्ष की मूर्ति लेने जा रही हूँ। अभी वह लेकर लौटूंगी। पर वह मूर्ति, महारानी के सिवाय किसी को देखनी नहीं है । बंद पालकी में लाऊँगी। उसने पालकी में ललितांग को बिठा दिया। उस पर लाल वस्त्र ढंक दिया । पालकी के चारों तरफ परदे गिरा दिये । आदमियों से पालकी उठवायी और वह महल में ले आयी । न तो किसी ने उसे रोका, न किसी ने उसे टोका ।
रानी और ललितांग मिले । जैसे स्वर्ग मिल गया हो, दोनों को वैसी खुशी हुई । दोनों मनचाही कामक्रीड़ा करने लगे। दासी को शयनखंड के बाहर महल के मुख्य दरवाजे की ओर निगाह रखने के लिए खड़ी कर दी थी। आनन्दप्रमोद में डूबी हुई रानी को समय का खयाल रहा नहीं । दिन का चौथा प्रहर शुरू हो गया था। शिकार पर गया हुआ राजा लौट आया था। । दूसरी ओर, अन्तःपुर के रक्षक को रानी की दासी की हलचल शंकास्पद लगी थी। यक्ष की मूर्ति लाल वस्त्र में लपेट कर क्यों लायी गई ? क्यों दासी कभी की रानीवास के दरवाजे पर अकेली बैठी है ? जब राजा आया तब अन्तःपुर के रक्षक ने यक्ष की मूर्ति की बात कही । अपनी शंका भी व्यक्त की । राजा ने कहा : मैं अभी रानीवास में ही जा रहा हूँ, चौकसी कर लूँगा।
दासी चतुर थी। उसने महल के दरवाजे पर महाराजा के घोड़े को देख लिया था। रक्षक को महाराजा से कानाफसी करते देखा । महाराजा को घोड़े से नीचे उतरकर, धीरे धीरे रानीवास की ओर कदम बढ़ाते देखकर उसका माथा ठनका। दासी ने तूर्त ही शयनखंड का द्वार खटखटाया। रानी ने अपने कपड़े ठीकठाक किये और दरवाजा खोला। दासी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी। उसने बोला : महाराजा आ रहे हैं। रानी और ललितांग के होशहवास गुम हो गये। ललितांग पसीने-पसीने हो गया । उसने कहा : 'मुझे कहीं छुपा दे।
रानी ने कहा : यहाँ तुझे कहाँ पर छुपाऊँ ? पकड़ा जायेगा तो राजा तुझे मार डालेगा और मेरी चमड़ी उतार लेगा। ललितांग रूआंसा हो उठा । कांपने लगा भय से । सोचने का समय कहाँ था ? रानी और दासी ने ललितांग को उठाया
और रानीवास के पीछे जो गंदा पुराना कुआ था, उसमें फेंक दिया। रानी दासी के सामने देखकर हँस दी । जैसे कि आम चूसकर गुटली बाहर फेंक दी हो । ललितांग को कए में फेंकने के बाद रानी निश्चित थी।
राजा ने रानीवास में प्रवेश किया। रानी ने बड़ी स्वाभाविकता से राजा का स्वागत किया । दासी शयनखंड के बाहर निकल गई । राजा ने शयनखंड में | एकत्व-भावना
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