Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 255
________________ हूँ, जो मेरा नहीं है, उसको मैं समझना और मेरा समझना जीव की जड़ता है । बुद्धिशून्यता है । हुँ एहनो, ए माहरो, ए हुं, इण बुद्धि, चेतन जड़ता अनुभवे, न विमासे शुद्धि । वेदांत दर्शन में जो कहा गया है – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या । इस अपेक्षा से सही है । ब्रह्म यानी आत्मा । आत्मा ही सत्य तत्त्व है, इसके अलावा सब कुछ मिथ्या है, असत्य है । इसलिए जगत के साथ ममत्व जोड़ने को ज्ञानीपुरुष मना करते हैं । जगत के साथ भावात्मक संबंध तोड़ने ही होंगे । बाह्य व्यवहार की दृष्टि से, निर्लेप भाव से ही संबंध रखने के हैं । बाह्य व्यवहारों में संबंध रखने पड़ते हैं, क्योंकि जगत के साथ जीना है । हाँ, पर्वकालीन महर्षि, योगी. मुनीश्वर...जो जंगलों में, गिरिगुफाओं में रहते थे, साधनानिमग्न रहते हैं, वैसे रहना हो तो व्यावहारिक संबंध भी रखने की आवश्यकता नहीं है । मैं नहीं हूँ – नाऽहम् । ___ जगत के साथ, दूसरे जड़-चेतन पदार्थों के साथ तो संबंध नहीं रखने हैं, अपने शरीर के साथ और अपने व्यक्तित्व के साथ भी संबंध नहीं रखने के * मैं मनुष्य नहीं हूँ, यह मनुष्यदेह मैं नहीं हूँ । * मैं युवान नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ । शरीर की कोई भी अवस्था, मैं नहीं हूँ । * मैं स्त्री नहीं हूँ, पुरुष नहीं हूँ । * मैं व्यापारी नहीं हूँ, मैं नौकर नहीं हूँ। * जिस नाम से मैं पुकारा जाता हूँ, वो मैं नहीं हूँ, मैं अनामी हूँ । * मैं डॉक्टर नहीं हूँ, वकील नहीं हूँ, इन्जिनियर नहीं हूँ। * कोई नाम-रूपवाला मैं नहीं हूँ। नाऽहम्...नाऽहम्...नाऽहम् । मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ। अपने व्यक्तित्व को भूलना, अपनी पहचान को भूलना बहुत आवश्यक है । इसलिए योगी, मुनि, ऋषि, इस मिथ्या जगत् से दूर-दूर जंगलों में, पहाड़ों में खो जाते थे। अपरिचित प्रदेशों में चले जाते थे। अनामी और अरूपी आत्मा के साथ तादात्म्य साधने के लिए, नाम और रूप से संबंध तोडना ही होगा। प्राचीन धर्मग्रंथों में मैंने पढ़ा था । साधुजीवन की श्रेष्ठ भूमिका जहाँ बतायी गई है । साधु किसी गाँव में गये और किसी गृहस्थ ने उनको नाम से, व्यक्तित्व | एकत्व-भावना २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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