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भार उन्होंने 'सिद्धचक्र' को सौंप दिया था ! सिद्धचक्र उनकी श्रद्धा का केन्द्र था, शरणागति का केन्द्र था । उनके विश्वास पर वे निश्चित थे ।
वे निर्भय थे, उनके मन में धवलसेठ पर द्वेष भी नहीं था, नये जीवन से ऊब भी गये थे । संकट उनको थका नहीं सके थे । वे सदैव प्रसन्नचित्त से, शान्त मन से सिद्धचक्र की आराधना करते थे । यह कोई कल्पना की कथा नहीं है । यह वास्तविकता है। जो मनुष्य निःस्पृह, निर्ममत्व होकर जीता है और श्रद्धा एवं शरणागति के भावों को हृदयस्थ करता है, वह सदैव शान्ति का अमृतपान करता रहता है ।
शान्तसुधा यानी मोक्षसुख :
शान्ति का अमृतपान, प्रशमरस का अमृतपान, यही इस संसार में मोक्षसुख का अनुभव है । 'प्रशमरति में भगवान उमास्वातीजी ने कहा है: दूरे मोक्षसुखं, प्रत्यक्षं प्रशमसुखम् ।' सिद्धशिला पर जो मोक्षसुख है, वह तो बहुत दूर है । यहाँ संसार में प्रशमसुख, शान्तसुधा का रसपान ही मोक्षसुख है । यदि यहाँ इस जीवन में मोक्षसुख का अनुभव करना है, तो शान्तसुधा का अमृतपान करते रहो । यह अमृतपान करने के लिए ममत्वरहित होकर, चार शरण स्वीकार करते रहो । शरणागति के भाव को हृदय में स्थिर करें ।
ममत्व - राग-द्वेष का थोड़े समय के लिए त्याग कर, स्थिर चित्त से स्थिर आसन से बैठकर निम्न प्रकार स्वाध्याय करें :
शुद्ध परिणामने कारणे, चारनां शरण धरे चित्त रे, प्रथम तिहां शरण अरिहंतनुं जेह जगदीश जगमित्त रे चेतन, ज्ञान अजुवालीए. जे समवसरणमां राजता, भांजता भविक - संदेह रे, धर्मनां वचन वरसे सदा, पुष्करावर्त जिम मेह रे... चेतन. शरण बीजं भजो सिद्धनुं, जे करे कर्म चकचूर रे, भोगवे राज्य शिवनगरनुं ज्ञान - आनंद भरपूर रे... चेतन. साधुनुं शरण त्रीजुं धरे, जेह साधे शिवपंथ रे, मूल - उत्तरगुण जे वर्या, भव तर्या भाव निर्ग्रन्थ रे... चेतन. शरण चोथुं धरे धर्मनुं, जेहमां वर दयाभाव रे, जे सुखहेतु जिनवर कां, पापजल तरवा नाव रे... चेतन.
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शान्त सुधारस : भाग १
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