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में ? यदि समय हो तो मुझे सुनाने की कृपा करें, जिससे मेरा भववैराग्य तीव्र बन सकें । मुनिवर और मंत्रीश्वर उपाश्रय के एकान्त भाग में जाकर बैठे और मुनिवर ने अपनी आत्मकथा शुरू की। __ 'मेरा जन्म उज्जयिनी नगरी में हुआ था। मेरे पिता धनदत्त, अति धनवान थे । मेरा नाम चौनक था। मैं जब यौवन में आया, मेरे पिताजी ने श्रीमति नामकी कन्या के साथ मेरी शादी कर दी । श्रीमति के साथ मेरा जीवनकाल सुखमय व्यतीत होता था । श्रीमति गर्भवती हुई । उसने मुझसे कहा : हे नाथ, मुझे मृग का मांस खाने की इच्छा पैदा हुई है। आप मृग का मांस लाकर मुझे दें, अन्यथा मेरी अकाल मृत्यु हो जायेगी। मैंने उसको पूछा : मुझे मृग कहाँ मिलेगा ? उसने कहा : 'आप राजगृही नगरी में जायें, वहाँ के राजा श्रेणिक के पास मृग
__ मैं मेरी पत्नी का मनोरथ पूर्ण करने के लिए हाथ में तलवार लेकर राजगृही की ओर चल पड़ा । पत्नी की ओर मुझे अति राग था। इसलिए मेरे मन में बहुत उल्लास था । मैं थोड़े दिनों में ही राजगृही पहुँच गया । मैं बाह्य उद्यान में गया। वहाँ राजगृही की वेश्याएँ आनंद-प्रमोद करने आई थीं। मैं एक वृक्ष के नीचे खड़ा रहा । उद्यान की शीतल हवा ने और वेश्याओं की क्रीड़ा ने मेरी थकान दूर कर दी । इतने में अचानक सरोवर के पास वेश्याओं ने शोर मचा दिया । नगरी की प्रसिद्ध वेश्या मगधसेना सरोवर में गिर गई थी । मैं सरोवर की ओर दौड़ा, सरोवर में कूद पड़ा। मुझे तैरना आता था । मैं मगधसेना को उठाकर सरोवर के किनारे पर आ गया । __ मगधसेना मुझ पर प्रसन्न हो गई । उसने मुझे कहा : हे प्रवासी, तुमने मुझे बचा लिया है, इसलिए तुम मेरे उपकारी हो । आज तुम मेरे साथ रहो और इस उद्यान में मेरे साथ आनंद-प्रमोद करो । मैं मगधसेना की बात टाल नहीं सका । एक दिन उसके साथ वहाँ रहा । उसने मुझे राजगृही आने का प्रयोजन पूछा । मैंने सारी बात बता दी । उसने मुझे कहा : 'हे श्रेष्ठिपुत्र, आप सरल हैं । आप समझ नहीं पाये, आपकी पत्नी दुराचारिणी है । मृग-मांस के बहाने से आपको दूर भेज दिया है।' ___ मैं मेरी पत्नी के प्रति अति रागी था, मेरा उस पर अति विश्वास था, इसलिए मैंने मगधसेना की बात नहीं मानी। मैंने मगधसेना को समझाने का प्रयत्न किया कि मेरी पत्नी संपूर्ण पतिव्रता है । परंतु मगधसेना मानने को तैयार नहीं थी।
शान्त सुधारस : भाग १
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