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गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका मनोवाक्कायेहा विकृतिरतिरोषात्तरजसः । विपद्गर्तावर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं । न जन्तोः संसारे भवति कथमप्यतिविरतिः ॥ २॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ में तीसरी संसारभावना का वर्णन करते हुए कहते हैं : इस संसार में मनुष्य की एक चिंता दूर होती है वहाँ उससे बढ़-चढ़कर दूसरी चिंता पैदा हो जाती है । मन, वचन और काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते हैं। तमोगुण और रजोगुण के प्रभाव से कदम-कदम पर आपत्तियों की गर्ता में गिरते-लुढ़कते जीवों के दुःखों का अंत किस तरह होगा?' चौनक मुनि की आत्मकथा : भयाद्भयम्।
उपाध्यायजी ने इस श्लोक में कहा है : १. संसार में मनुष्य को सतत चिंताएँ रहती हैं । २. मन-वचन-काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते हैं, और ३. कदमकदम पर आपत्तियाँ आती रहती हैं । ये तीनों बातें इस कहानी के माध्यम से आप समझने का प्रयत्न करें । महामंत्री अभयकुमार और चार मुनिवरों की यह कहानी, संसार की असारता-निर्गुणता और दुःखपूर्णता अच्छी तरह समझाती है।
धनदमुनिवर की आत्मकथा सुनकर महामंत्री गहन विचार में डूब गये। रात्रि की निरव शांति, पौषधशाला का पवित्र वातावरण और मुनिवरों की वैराग्यपूर्ण जीवनकथाएँ ! अभयकुमार पर गहरा असर हुआ। संसार में कर्मों के दारुण विपाकों को वे सोचने लगे । चौथा प्रहर शुरू हुआ था। पुनः एक शब्द - भयाद्भयम् उनके कानों पर आया । भयों का भी भय ! महामंत्री ने उपाश्रय के द्वार पर देखा । द्वार पर एक मुनिराज खड़े थे। महामंत्री खड़े हुए और मुनिराज के पास गये । पछा : हे पूज्य, क्या भयाद्भयम् शब्द आपके मुँह से निकला ?' मुनिराज ने कहा : हाँ महामंत्री, भयाद्भयम् शब्द मेरे मुँह से निकल गया.... महामंत्री ने कहा : कैसे ? आपको कैसा भय ? आप तो इन्द्र जैसे निर्भय हो । संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले मुनिवर को भय कैसा ?'
मंत्रीश्वर, सही बात है आपकी, परंतु मेरे गृहस्थजीवन की एक अति भयानक घटना मुझे याद आ गई, और मेरे मुँह से यह शब्द निकल गया ।
महामंत्री ने कहा : हे पूज्य, ऐसी कौन-सी घटना घटी थी, आपके जीवन । संसार भावना
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