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व्रजति तनयोऽपि ननु जनकतां, तनयतां व्रजति पुनरेष रे । भावयन्विकृतिमिति भवगतेस्त्यज तमां नृभवशुभशेष रे ।। ५ ।। कलय० यत्र दुःखार्तिगददवलवै-रनुदिनं दासे जीव रे हन्त तत्रैव रज्यसि चिरं मोहमदिरामदक्षीव रे ॥६॥ कलय. दर्शयन् किमपि सुखवैभवं संहरंस्तदथ सहसैव रे।। विप्रलम्भयति शिशुमिव जनं कालबटुकोऽयमत्रैव रे ॥७॥ कलय. सकलसंसारभयभेदकं जिनवचो मनसि निबधान रे । विनय परिणमय निःश्रेयसं विहित शमरससुधापान रे ॥८॥ कलय.
उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसार-भावना का गान करते हुए कहते हैं :
इस संसार में, भव के परिवर्तन के साथ पुत्र पिता बनता है, पिता पुत्र का रूप लेता है ! तू ऐसी संसार-स्थिति का जरा विचार तो कर ! और ऐसे संसार के हेतुभूत पापों का त्याग कर । अभी भी मानवदेहरूप शुभ सामग्री तेरे पास है, तू पुरुषार्थ कर ।
ओ जीव, तु जिस संसार में प्रतिदिन तरह-तरह की चिंता, दुःख और बीमारियों की अग्निज्वाला में जलता है, झलसता है, उसी संसार पर त क्या आसक्त हुआ जा रहा है ? परंतु इसमें तेरा दोष क्या ? मोह की मदिरा तूने दबा-दबा कर पी रखी है, जिससे तेरी बुद्धि सुन्न हो गई है । बड़े अफसोस की यह बात है।
यह काल-महाकाल एक जादुगर है । इस संसार के जीवों को वह सुखसमद्धि बताता है, ललचाता है और फिर अचानक वह सारी मायाजाल समेटकर लोगों को अबोध बच्चे की तरह ठगता है । यह संसार एक इन्द्रजाल से ज्यादा, जादुगर की मायाजाल से ज्यादा और कुछभी नहीं है ।
इसलिए ओ आत्मन्, तू तेरे मन में जिनवचनों का चिंतन कर । वे जिनवचन ही संसार के तमाम भयों का नाश करेंगे । शमरस का अमृतपान करके तू मुक्ति का यात्री हो सकेगा। मक्ति, तमाम दुःखों के संपूर्णतया विलयरूप है और शाश्वत सुख का एकमात्र धाम है । पापत्याग का पुरुषार्थ करें :
जिस संसार में मोहशत्रु सताता रहता है, जो संसार भयाक्रान्त है, डरावना है, जिस संसार के सभी रिश्ते असार हैं, जहाँ कदम-कदम पर परेशानियाँ है, पराभव _ संसार भावना
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