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जीते हैं ।
तेणावि जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वाऽसुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छइ उ परं भवं ॥ मरनेवाला जीव, हे राजन्, जो शुभाशुभ कर्म करता है, उन कर्मों के साथ वह जीव परलोक जाता है, इसलिए हे राजन्, तप और संयम ग्रहण करना चाहिए ।
महामुनि से इस प्रकार जिनवचन सुन कर राजा संजय संसार के प्रति विरक्त बनते हैं, वैषयिक सुखों के प्रति विरागी बनते हैं, राज्य का त्याग कर देते हैं... और श्रमण बन जाते हैं । तप-संयम का पालन कर परम संवेग से मुक्तिसुख पा लेते हैं ।
इन जिनवचनों पर थोड़ा चिंतन करें :
राजा संजय की आत्मस्थिति पर थोड़ा विचार करना चाहिए । वह राजा था। मांसाहारी था । रोजाना मृगमांस खानेवाला था । मृगमांस उसे बहुत भाता था । यह बात 'उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बताई है । शायद वह कोई भी धर्मक्रिया नहीं करता होगा । न किसी साधु-मुनिराज का परिचय होगा ! जैन श्रमण का तो परिचय होगा ही नहीं । अन्यथा वह यह नहीं सोचता कि ये मुनि कोपायमान होंगे, तो लाखों-करोड़ों मनुष्यों को जला सकते हैं !' 'कुद्धे तेण अणगारे दहिज्ज नरकोडिओ । ऐसा नहीं सोच सकता था । जैन श्रमण क्षमाशील होते हैं । अपराधी के प्रति भी क्षमाशील होते हैं । क्षमा तो उनका प्रथम गुण होता है। परंतु संजय राजा, सर्वप्रथम गर्दभाली मुनिराज के परिचय में आये थे ।
दूसरी बात थी शिकार की। उसने अनेक मृगों का शिकार किया था । अनेक मरे हुए मृग वहाँ पड़े थे । शायद एकाध तीर मुनिराज को भी लगा हो। इसलिए राजा भयभीत हो गया था और विनम्र हो, विनीत हो, मुनिराज से क्षमा माँग रहा था । अभय वचन माँग रहा था ।
यह बात हुई राजा की । अब सोचें मुनिराज के विषय में । पहली बात : मुनिराज राजा के परिचित नहीं थे । राजा भी मुनिराज का परिचित नहीं था । दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे । दूसरी बात : मुनिराज जंगल में - केशरवन में, मृगों के वन में, अकेले ध्यान- धर्मध्यान कर रहे थे यानी ध्यानस्थ थे । राजा ने उनके ध्यान में विघ्न किया था। हजारों मृग भी जीव बचाने के लिए उधर
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शान्त सुधारस : भाग १
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