Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 242
________________ I संसार के दुःखों से बचने का आश्वासन पाता है । विश्वास पाता है । वैसे संसार की, हिंसादि पापों की आसक्ति भी जिनवचनों से ही टूटती है | मोहासक्त और पापासक्त जीवों को, भाग्यवश जिनवचन सुनने मिल जाते हैं, तो वे जीव मोहरहित - पापरहित बन जाते हैं । 1 गर्दभाली मुनि और संजय राजा : ऐसी ही एक प्राचीन कहानी आज आपको सुनाऊँगा। यह कहानी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी अंतिम देशना में सुनाई थी । 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आज भी वह कहानी पढ़ सकते हैं । कांपिल्य नगर का राजा संजय, पशुओं का शिकार करने जंगलों में जाया करता था । उसको मृगमांस बहुत भाता था, इसलिए वह ज्यादातर मृगों का शिकार करता था । उसने एक बहुत बड़ा मृगवन बनवाया था। उस वन में हजारों मृग रहते थे । उस वन का नाम था केशरवन । एक दिन की बात है । वह कुछ सैनिकों के साथ शिकार करने केशरवन में गया । उसने मृगों का शिकार करना प्रारंभ किया । परंतु राजा को देखकर, हजारों मृग दौड़कर एक वृक्षघटा में कि जहाँ एक मुनिराज धर्मध्यान में निमग्न हो, खड़े थे, वहाँ पहुँच गये । राजा ने वहाँ जाकर शिकार किया। कुछ मृगों को मार डाला । फिर घोड़े पर से उतरकर उस वृक्षघटा में गया । वहाँ उसने करुणामूर्ति ध्यानस्थ गर्दभाली नाम के मुनिराज को देखा । उसने सोचा : 'मैंने मुनिराज को देखा नहीं, मात्र मृगों को ही देखा और तीर चला दिये । मुनिराज को भी तीर लगा होगा ?' वह भयभीत हो गया । उसने मुनिराज के चरणों में वंदना की और बोला : 'हे भगवन्, मेरे इस अपराध को क्षमा करें, मैंने बड़ा पाप किया है ।' परंतु मुनिराज तो ध्यानस्थ थे । उन्होंने राजा को प्रत्युत्तर नहीं दिया । राजा संजय घबराया । उसने सोचा: 'ये मुनि प्रत्युत्तर नहीं देते । अवश्य ये मेरे प्रति कोपायमान बने हैं... ये क्या करेंगे। शाप देंगे ? जला देंगे मुझे ? ऐसे घोर तपस्वी मुनि, यदि वे क्रोधी बनते हैं, तो हजारों लोगों को जला सकते हैं। मैंने ऐसा सुना है। परंतु मैं क्या करूँ ? मुझे मालुम नहीं था कि इस वृक्षघटा में मुनिराज खड़े होंगे ! मैं मेरा परिचय दूँ और पुनः क्षमायाचना कर, उनसे अभयवचन माँग लँ । राजा विनम्र भाव से बोला 'भगवन्, मुझे क्षमावचन सुनायें । मैं राजा संजय २२६ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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