Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 203
________________ विषयलालसा : मृगतृष्णा : 1 ग्रंथकार ने संसार को वीरान उज्जड़ जंगल की उपमा दी है। इसको जंगल कहने के बजाय रेगिस्तान कहना ज्यादा उचित होगा । रेगिस्तान में सूर्य तपता है, तब मृगजल दिखाई देता है । दूर-दूर मृगों को पानी से भरा सरोवर दिखता है । वह पानी पीने, तृषातुर मृग दौड़ते हैं । परंतु वहाँ पानी की जगह गरमगरम रेत मिलती है । पुनः वे मृग दूर-दूर देखते हैं, पानी का सरोवर दिखता है... पानी पीने उधर दौड़ते हैं, पर पानी नहीं मिलता है, गरम-गरम रेत मिलती है । यह सिलसिला दिनभर चलता रहता है, मृग भटकते रहते हैं, शाम को वे मर जाते हैं । विषयतृष्णा मृगजल जैसी है। जीवात्माएँ जन्म से मृत्यु तक विषयतृष्णा से भव- रेगिस्तान में भटकते रहते हैं । दूर से विषयों में सुख दिखाई देता है । विषय मिलने पर सुख नहीं, परंतु दुःख मिलता है । इस विषय में मैं आपको एक कहानी, जो कि बहुत रोमांचक है, सुनाकर व्याख्यान समाप्त करूँगा । अभयकुमार और चार मुनिवर : मगधसम्राट श्रेणिक के पुत्र और महामंत्री थे अभयकुमार । अभयकुमार को भगवान् महावीरस्वामी के ऊपर दृढ़ श्रद्धा थी । मगधदेश के महामंत्री होने पर भी वे अपना आत्मकल्याण नहीं भूलते थे । अनेकविध प्रवृत्तियाँ होने पर भी, समय निकाल कर, निवृत्त होकर वे धर्मध्यान करते रहते थे । उनको संसारत्यागी और विरागी मुनिवरों के प्रति आंतर- प्रेम होता था। कभी-कभी पौषधव्रत लेकर, वे रातभर मुनिवृंद के साथ रहते थे और पवित्र वातावरण का आनन्द पा थे । उनको पवित्र मुनिजीवन पसंद था और उनका ध्येय भी मुनिजीवन था । - एक दिन की बात है । अभयकुमार ने रात्रि - पौषध का व्रत लिया। पौषधशाला में श्री सुस्थितसूरिजी अनेक मुनिवरों के साथ बिराजमान थे। रात्रि का एक प्रहर व्यतीत होने पर, सभी मुनिवर निद्राधीन हुए, तब अभयकुमार ने धर्मध्यान शुरू किया । इतने में रात्रि की निरव शान्ति का भंग करता हुआ भयं ऐसा शब्द सुनायी दिया। अभयकुमार ने जिस तरफ से आवाज आयी थी, उस तरफ देखा । उपाश्रय में प्रवेश करते हुए एक मुनिराज के मुख से यह शब्द निकला था । अभयकुमार खड़े हुए और मुनिराज को विनय से पूछा : 'हे पूज्य, उपाश्रय में प्रवेश करते समय तो 'निसिही' बोलना होता है, आप 'भयं' बोले, भगवंत, यहाँ उपाश्रय में आपको किस बात का भय है ?' संसार भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only १८७ www.jainelibrary.org

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