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भी इच्छा पूर्ण नहीं हो पायी थी । उनकी आत्मा तो जाग्रत हो गई थी और वे इच्छाओं से मुक्त हो गये... संसार से मुक्त हो गये ! राजसभा में खड़े-खड़े वे केवलज्ञानी बन गये थे । लोभ से विनाश :
परंतु जो आत्मज्ञानी नहीं होते हैं, लोभ उनका विनाश करता है ! उपनिषदों में एक कथा आती है । महापंडित 'कौत्स्य कालिन्दी नदी के तट पर बैठकर प्रतिदिन प्रवचन दिया करते थे । विषय चल रहा था 'लोभ से विनाश । पंडितजी स्वयं को लोभविजेता मानते थे। वैसे उनके सामने लोभ का कोई प्रसंग भी नहीं आया था ।
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नदी के गहरे पानी में एक मगरमच्छ रहता था । उसने सोचा कि यह पंडित अभिमानी, अपरिपक्व और आपबड़ाई करनेवाला है। उसने पंडित को बोधपाठ देना चाहा ! एक दिन नदी के किनारे से पंडित के आसन तक मगरमच्छ ने मोती बिखेर दिये । पंडित ने मोती देखे ! वे मोती इकट्ठे करने लगे । मोती इकट्ठे करते-करते वे किनारे तक पहुँच गये। किनारे पर मगरमच्छ उनका इन्तजार ही कर रहा था । उसने पंडितजी को प्रणाम किया और कहा 'कृपावंत, मैं तो जलचर प्राणी हूँ, आपके आसन तक आ नहीं सकता । इसलिए मोती डालकर आपको यहाँ तक बुलाया । आपके दर्शन कर धन्य हुआ ।
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मगरमच्छ की संपन्नता, उदारता और श्रद्धा देखकर कौत्स्य पंडित खुश हुए । आशीर्वाद दिये । मगरमच्छ ने कहा : 'गुरुदेव, आप करुणानिधान हैं । मेरी एक मनोकामना त्रिवेणीस्नान करने की है। मैंने मार्ग देखा नहीं है । क्या आप मुझे मार्ग दिखायेंगे ? आप मेरी पीठ पर बैठ जायें, आप मार्ग बताते जायेंगे, मैं तैरता जाऊँगा । त्रिवेणी संगम पहुँचकर, मेरे पास जो सहस्र मणियों का हार है, वह आपको ही देना है ।
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मगरमच्छ की बात सुनकर पंडितजी के मुँह में पानी आ गया ! सहस्र मणियों के हार की बात सुनकर वे ललचा गये । लोभ के पहले ही आक्रमण में पंडित का पांडित्य हवा में उड़ गया ! वे मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गये । मगरमच्छ नदी के प्रवाह में तैरने लगा । मगरमच्छ ने पंडित को कहा : पंडितजी, आप रोजाना 'लोभ से विनाश का उपदेश देते हैं, वह उपदेश आप भूल गये न ?' उसने पंडित को पानी में डाल दिया और अविलंब उनको उदरस्थ कर गया । निगल गया !
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शान्त सुधारस : भाग १
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