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परंतु चक्रवर्ती राजा की स्त्रीरत्न का ऐसा निमित्त मिला कि पुनः संभूतमुनि के मन में जीवन का ममत्व जाग्रत हो उठा ! सामान्य जीवन का ममत्व नहीं, चक्रवर्ती के जीवन का ममत्व पैदा हुआ ! चित्रमुनि ममत्व के बंधन में नहीं बँधे, संभूत बँध गये । उन्होंने नियाणा कर दिया । दोनों भाइयों का आयुष्य पूर्ण होने पर, दोनों देवलोक में देव हुए।
देवत्व भी शाश्वत् नहीं होता है । देवों का भी आयुष्य होता है । आयुष्य पूर्ण होने पर देवभव छूट जाता है, मनुष्यभव में अथवा तिर्यंचभव में जन्म लेना पड़ता है । देव मर कर देवभव में जन्म नहीं ले सकता है, वैसे सीधा नरक में भी उत्पन्न नहीं हो सकता है । संभूत मर कर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती : __संभूत का देवभव का आयुष्य पूर्ण होता है और वह इस भरतक्षेत्र में कांपिल्यपुर में ब्रह्मराजा की रानी चुलनीदेवी के पेट में आता है । चुलनी ने १४ महास्वप्न देखे । चक्रवर्ती की माता १४ महास्वप्न देखती है । जब पुत्र का जन्म हुआ, उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया । ब्रह्मदत्त बारह वर्ष का हुआ तब ब्रह्मराजा की मृत्यु हो गई । चक्रवर्ती होने के पहले ब्रह्मदत्त के जीवन में अनेक कष्ट आये, आपत्तियाँ आयी... परंतु उसका जीवनमोह प्रबल था, उसको वैराग्य होने का नहीं था । वह एक दिन चक्रवर्ती बना । नियाणा किया था न ? स्त्रीरत्न भी मिला। निमित्त पाकर उसको जातिस्मरण ज्ञान होता है । पूर्व के पाँच जन्म बतानेवाला जातिस्मरण ज्ञान होता है । उसने पूर्वजन्म के भ्राता चित्र को देखा । 'मेरा भाई मुझे कहाँ मिलेगा ?' चित्र के प्रति उसके हृदय में दृढ़ अनुराग था । चक्रवर्ती, चित्र को खोज निकालता है ।
चित्र का जीव, देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर, इसी भरतक्षेत्र में पुरिमताल नगर में श्रेष्ठिपुत्र होता है । उसको भी जातिस्मरणज्ञान होता है, वह संसार से विरक्त होता है और चारित्रधर्म का स्वीकार कर लेता है। पूर्वजन्म के भ्राता को प्रतिबोध करने वे मुनि पुरिमताल नगर में आते हैं । वहाँ पर ब्रह्मदत्त का मिलन होता है । ब्रह्मदत्त पूर्वजन्म के भ्राता को मिलने पर अति हर्षसभर होता है, वंदना करता है और उपदेश सुनने मुनि के आगे विनय से बैठ जाता है । मुनिराज ब्रह्मदत्त को उपदेश देते हैं । हालाँकि वे जानते हैं कि इसने नियाणा करके चक्रवर्तीपना पाया है, इसलिए इसका जीवनममत्व, भोगासक्ति टूटनेवाली नहीं है, फिर भी एक कर्तव्य के नाते उन्होंने उपदेश दिया । | १७४
शान्त सुधारस : भाग १
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