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समय भी सीताजी निर्भय होकर, श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण कर अग्निकुंड कूद पड़े थे । अपने सतीत्व-धर्म के ऊपर भी उनकी कैसी निःशंक श्रद्धा थी ! अग्निकुंड, पानी का कुंड बन गया था !
दूसरा उदाहरण नलराजा की रानी दमयंती का है । राजा नल ने दमयंती का जंगल में त्याग कर दिया था। एक असुर से दमयंती को मालुम हुआ था कि बारह वर्ष तक पति का वियोग रहनेवाला है । दमयंती ने कुछ अभिग्रहप्रतिज्ञाएँ मन में ले ली और एक गिरिगुफा में निवास कर लिया । वहाँ उसने मिट्टी की, भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति बनायी और पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवंत की पूजा करने लगी । दमयंती के हृदय में परमात्मा के प्रति अपूर्व शरणभाव था । 'वसंत' नाम के सार्थवाह ने गुफा के पास एक नगर बसा दिया था । वहाँ पर दमयंती के उपदेश से ५०० तापस प्रतिबोधित हुए थे । भगवान् शान्तिनाथ के भक्त बन गये थे ।
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एक दिन दमयंती गुफा के बाहर जंगल में परिभ्रमण कर रही थी, उस समय अचानक उसके सामने भयानक आकृतिवाली राक्षसी प्रगट हुई और बोली: मैं तुझे खा जाऊँगी !' दमयंती घबरायी नहीं, उसने आँखें मूँद कर बोला : यदि मैंने मेरे पति नल के अलावा किसी भी पुरुष का कामवासना से प्रेरित होकर विचार भी नहीं किया हो, तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से और मेरे हृदय में रहे हुए आर्हत् धर्म के प्रभाव से यह राक्षसी शांत हो !' तत्क्षण राक्षसी शांत हो गई, दमयंती को प्रणाम किया और अदृश्य हो गई ।
दमयंती उसी वन में चलती - चलती आगे बढ़ी । उसको बहुत प्यास लगी थी । रास्ते में एक निर्जल नदी आयी । नदी में एक बूंद भी पानी नहीं था । दमयंती ने पंचपरमेष्ठि का स्मरण कर नदी में पैर से प्रहार किया और नदी में पानी उभर आया । जलपान कर दमयंती नदी के किनारे पर एक वृक्ष के तले बैठी ।
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• तीसरा प्रसिद्ध दृष्टांत सती सुरसुंदरी का है । राक्षसद्वीप के ऊपर उसका पति अमरकुमार, सुरसुंदरी का त्याग कर चला गया था । द्वीप पर अकेली सुरसुंदरी रह गई थी । समुद्र के किनारे पर जाकर उसने मध्यम सूर से श्री नवकारमंत्र का जाप शुरू किया था। उस समय उस द्वीप का अधिष्ठायक राक्षस वहाँ आता है और सुरसुंदरी को अपना भक्ष्य बनाने की इच्छा से उसकी ओर दौड़ता है । परंतु श्री नवकारमंत्र की ध्वनि सुनते ही शान्त हो जाता है। सुरसुंदरी को पुत्रीवत्
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अशरण भावना
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