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श्रीकृष्ण ने जराकुमार को सान्त्वना देते हुए कहा : मेरे बड़े भैया, अब शोक नहीं करें । मेरे से, आप से और किसी से भी भवितव्यता का उल्लंघन नहीं हो सकता । यादवकुल में अब आप ही एक बचे हो । आप चिरकाल जीयें इसलिए अब एक क्षण का भी विलंब किये बिना आप यहाँ से चले जाओ। क्योंकि बलराम अभी पानी लेकर आयेंगे, वे क्रोध से तुम्हें मार डालेंगे । लो, मेरा यह कौस्तुभ रत्न और पांडवों के पास चले जाओ । उनको सत्य वृत्तांत सुना देना । मेरी ओर से सभी पांडवों से क्षमापना करना । श्रीकृष्ण की अंतिम आराधना : ___ जराकुमार ने श्रीकृष्ण के चरण में से तीर खींच लिया, कौस्तुभ रत्न लिया
और वहाँ से चल दिया । जराकुमार के जाने के बाद, श्रीकृष्ण तीर के आघात से अत्यंत पीडित होते हुए भी उत्तराभिमुख होकर, अंजलि जोड़कर बोले : ___अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुभगवंतों को मन-वचन-काया से मेरा नमस्कार हो । विशेषरूप से भगवान नेमिनाथ को मेरा नमस्कार है कि जिन्होंने इस पृथ्वी पर धर्मतीर्थ की प्रवर्तना की। इतना बोलकर वे तृण के संथारे पर सो गये, जान पर चरण रखा, पीला वस्त्र ओढ़ लिया और चिंतन करने लगे : 'रूक्मिणी वगैरह मेरी रानियों को धन्य है, शांब, प्रद्युम्न वगैरह राजकुमारों को धन्य है कि जिन्होंने गृहवास का त्याग कर परमात्मा के चरणों में चारित्रधर्म ले लिया ! मुझे धिक्कार है कि मैं इस दुःखपूर्ण संसार में पड़ा रहा...!'
इस प्रकार शुभ भावना भाते-भाते श्रीकृष्ण का शरीर भीतर से टूटने लगा। यमराज के सहोदर जैसा वायु शरीर में प्रकुपित हुआ। तीव्र तृषा, अत्यधिक शोक और प्रकुपित वायु ने श्रीकृष्ण के विवेक को सर्वथा नष्ट कर दिया। उनका मन अंतिम क्षणों में अशुभ-रौद्र ध्यान में चला गया : उस द्वैपायन ने मेरा घोर पराभव किया...फिर भी अभी यदि यहाँ आये तो क्षणमात्र में उसको मार डालूँ... रौद्रध्यान में उनकी मृत्यु हो गई । एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण हुआ । मरकर वे तीसरी नरक में चले गये ।। उपाध्यायश्री सकलचंद्रजी की सज्झाय याद आती है :
हय गय पय रथ क्रोडे विंटया, रहे नित राणाराय रे, बहु उपाय ते जीवन काजे करता अशरण जाय रे... को नवि शरणं, को नवि शरणं, मरता कुणने प्राणी रे...
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अशरण भावना
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