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बनानेवाली साधुता का स्वीकार कर लूँ !
सयं च जइ मुच्चिज्जा वेअणा विउला इसो । खंतो दन्तो निरारंभो पव्वइए अणगारिअं ॥ ३२ ॥
उत्तराध्ययन/अ-२०
हे राजन्, इस प्रकार चिंतन करते-करते मुझे नींद आ गई ! कई दिनों से मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं निद्राधीन हो गया शुभ चिंतन के प्रभाव से । रात्रि पूर्ण होने पर मेरी वेदना नष्ट हो गई । मेरी आँखों की वेदना... मेरे शरीर का दाहज्वर... वगैरह सभी प्रकार का दर्द उपशान्त हो गया !
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राजेश्वर, प्रभात में मैंने मेरे माता-पिता वगैरह स्वजनों को मेरा संकल्प कह सुनाया। शुभ संकल्प का प्रभाव बताया। उनसे मैंने साधु बनने की इजाजत ली और मैं साधु बन गया । कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन और आरंभसमारंभ के त्यागवाली साधुता का पालन करने लगा । हे राजन्, तब मैं नाथ बना, सनाथ बना ! अपना नाथ बना, दूसरे जीवों का भी नाथ बना । श्री उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा गया है :
तओहं नाहो जाओ, अप्पाणो य परस्य य ।
सव्वेसिं चेव भूआणं तसाणं थावराण य ।। ३५ ।।
अपने और दूसरों के नाथ कैसे बनें ?
मुनिराज श्रेणिक को बता रहे हैं: राजन्, अणगार बनने के बाद मैं स्वयं का नाथ बना और त्रस - स्थावर सभी जीवों की रक्षा करनेवाला नाथ बना । राजन्, मैं अपने आपका नाथ कैसे बना, यह पहले बताता हूँ ।
अप्पा नई वेअरणी, अप्पा मे अप्पा कामदुहा धेणू अप्पा मे
अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाणय सुहाणय ।
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उ. अ. २०
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय- सुपट्ठिओ ॥
'आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही वज्रकंटकोंवाला शाल्मली वृक्ष
कूडसाल्मणी । नंदणं वणं ॥
है । आत्मा ही कामदुग्धा धेनु है और आत्मा ही नंदनवन है ! आत्मा ही सुखदुःख का कर्ता है, आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है ।'
जब तक जीव संसार में विषय-कषायों में मग्न रहता है, तब तक वैतरणी
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शान्त सुधारस : भाग १
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