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संभव है, परंतु सत्पुरुषों का क्रोध, दुर्जनों के स्नेह जैसा क्षणिक होता है । वैसे तो सत्पुरुषों को क्रोध होता ही नहीं है, होता है तो दीर्घकाल तक रहता नहीं है, रहता है तो भी वह निष्फल जाता है । हे महामुनि, मेरी आप से प्रार्थना है आप कि क्रोध छोड़ दें। क्योंकि आप तो अपकारी और उपकारी के प्रति समदृष्टिवाले होते हैं।
फिर भी मुनिराज की तेजोलेश्या शान्त नहीं हुई । बात उद्यान में चित्रमनि को मालुम हुई । वे तत्काल संभूतमुनि के पास आये और मधुर वाणी से संभूतमुनि को शान्त किया। राजा और प्रजा ने मनि को वंदना की। दोनों मनिराज उद्यान में लौटे । संभूतमुनि के हृदय में घोर पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ । उन्होंने चित्रमुनि को कहा : मात्र आहार के लिए घर-घर फिरने से कष्ट पैदा होता है । आहार से शरीर का पोषण करने पर भी, परिणाम तो शरीर का नाश ही है । एक दिन शरीर नष्ट होनेवाला ही है । तो फिर योगी पुरुषों को शरीर और आहार की अपेक्षा ही क्यों रखनी चाहिए ? इसलिए अपने चारों आहार का त्याग कर अनशन कर लें।
चित्रमुनि और संभूतमुनि ने अनशन-व्रत स्वीकार कर लिया। उधर चक्रवर्ती राजा ने साधु का पराभव करनेवाले नमुचि को पकड़ लिया । राजा ने कहा : 'पूज्य पुरुष की जो पूजा नहीं करता है, परंतु उनका हनन करता है, वह महापापी है । राजा ने नमुचि को रस्सी से बंधवाया और नगर के राजमार्गों पर घुमाया। बाद में उद्यान में मुनिराज के समक्ष उपस्थित किया । चक्रवर्ती ने दोनों मुनिराज को वंदना की और कहा : आप आज्ञा करें, आपका यह अपराधी है, क्या दंड करूँ? मुनिराज ने कहा : राजन, जो अपराधी होता है, वह स्वतः अपने पापकर्म का फल भोगता है । मुनिवरों ने नमुचि को बंधनमुक्त करवाया। राजा ने नमुचि को देशनिकाला दे दिया। संभूतमुनि का मानसिक पतन :
चक्रवर्ती राजा, संभूतमुनि एवं चित्रमुनि के गुणों से आकर्षित हुआ था। वह अपने अंतःपुर की रानियों को लेकर मुनिवरों को वंदन करने आया । दोनों मुनि ने अनशन-व्रत स्वीकारा हुआ था। दोनों शान्त थे, स्वस्थ थे। चक्रवर्ती ने दोनों मुनिवरों को वंदना की । सुनंदा, जो कि चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न था, उसने भी हजारों रानियों के साथ भावपूर्वक वंदना की । परंतु वंदना करते समय सुनंदा के बालों की चोटी खुल गयी । वैसे भी स्त्रीरत्न के बाल बहुत लंबे होते हैं ।
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शान्त सुधारस : भाग १]
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