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उग्र तपश्चर्या करने से यह दुर्लभ मानवजीवन सफल होगा। यह मानवदेह बहुत मूल्यवान है, उसका व्यर्थ ही नाश नहीं करना चाहिए ।
महामुनि की अमृतमयी वाणी सुनकर दोनों भाई के मन निर्मल बने, पवित्र बने । आत्महत्या करने का विचार छोड़ दिया । दोनों ने उस मुनिराज के पास श्रमण-धर्म का स्वीकार किया । दोनों भाई साधु बन गये । मुनिराज ने दोनों भाइयों को अच्छा अध्ययन कराया । वे दोनों ज्ञानी बने । तपस्वी बने । गुरुदेव की आज्ञा पाकर चित्रमुनि और संभूतमुनि गांव-नगर को पावन करते हुए हस्तिनापुर के बाह्य प्रदेश में पहुँचे । नगर के बाह्य उद्यान में दोनों मुनिवरों ने स्थिरता की और उग्र तप तपने लगे।
एक दिन संभूतमुनि मासखमण (एक महीने के उपवास) के पारणे के लिए भिक्षा लेने नगर में गये । वहाँ उस नमुचि ने मुनिराज को देखा । नमुचि काशी से भागकर यहाँ हस्तिनापुर में आया था और चक्रवर्ती सनत्कुमार की राजसभा में मंत्री बना था । नमुचि ने संभूत को पहचान लिया । वह घबरा गया। उसने सोचा : यह संभूत - चांडालपुत्र मेरा पूर्ववृत्तांत यहाँ प्रगट कर देगा, इसलिए उसने अपने सेवकों को आज्ञा कर दी - इस साधु को मारकर नगर के बाहर निकाल दो। सेवकों ने जाकर मुनिराज को पकड़ा और मारने लगे । नमुाच देखता है । नीच और अधम पुरुष पर किये हुए उपकार सर्प को दूध पिलाने जैसा होता है। क्या नमचि नहीं जानता था कि चित्र और संभूत मुझे गुप्त रास्ते से भगाते नहीं तो उनका पिता - चांडाल मुझे मार डालता । मैंने उस आश्रयदाताजीवनदाता की पत्नी के साथ व्यभिचार-सेवन किया था । जानता था, फिर भी संभूति, जो कि मुनिवेश में था, उसको अपने सैनिकों के द्वारा मरवाता है। मनि बाह्य उद्यान में जाने लगे, परंतु सैनिकों ने जाने नहीं दिया। मारते रहे ।
तब अचानक मुनि के मुँह से तेजोलेश्या उत्पन्न हो गई । मुनि कोपायमान हो गये । मुँह में से अग्निज्वालाएँ निकलने लगी। जो सैनिक मार रहे थे, वे अग्निज्वालाओं में जलने लगे । नगरवासी लोग घबरा गये । नमुचि भी भयभीत हो गया । बात पहुँची सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास । चक्रवर्ती तत्काल मुनिराज के पास गये । मुनिराज को वंदना कर प्रार्थना की :
हे भगवन, इस प्रकार रोष करना आप जैसे महर्षि को क्या उचित है ? सूर्य के किरणों से चन्द्रकान्त मणि तपता जरूर है, फिर भी अपनी शीतल कान्ति छोड़ता नहीं है । इन सेवकों ने आपका अपराध किया है, इसलिए उन पर क्रोध आना
अशरण भावना
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