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नदी रूप होता है । मैंने संसार का त्याग कर दिया, मैं अपने आपका नाथ बना ! मैने संसार के आरंभ-समारंभों का त्याग कर दिया, इसलिए मैं दूसरे जीवों का भी नाथ बना ! मैंने जब साधुता का स्वीकार कर लिया, मुझे कामधेनु मिल गई, नंदनवन मिल गया ! मैं चित्त का परम आनंद अनुभव करता हूँ, यही मेरी सनाथता है । मन-वचन-काया से मैं संयमधर्म का निरतिचार पालन करता हूँ, इसलिए मैं स्व-पर का नाथ बना हूँ।
राजन्, स्व-पर का नाथ वही बनता है कि जो - - कर्मशत्रुओं का नाश करने के लिए तत्पर होता है । - इन्द्रियविजय करने के लिए प्रयत्नशील होता है । - मनोजय करने के लिए प्रतिक्षण जाग्रत रहता है। - घोर-वीर और उग्र तपश्चर्या करता है। - अपने महाव्रतों का दृढ़ता से पालन करता है ।
अनाथीमुनि में ये पाँचों बातें थी, इसलिए वे 'नाथ' बने थे। श्रेणिक में ये पाँच बातें नहीं थी, इसलिए वह अनाथ था । मुनि ने श्रेणिक को इस अर्थ में
अनाथ कहा था। संसार में जीव अनाथ – अशरण है :
संसार में जीव उग्र रोगों के सामने, वृद्धावस्था के सामने और मृत्यु के सामने तो अनाथ - अशरण है ही, परंतु इन बातों के अलावा आध्यात्मिक दृष्टि से भी जीव कैसे अनाथ और अशरण है, यह भी समझ लेना चाहिए। * जो जीवात्मा अरिहंत परमात्मा की, सिद्ध भगवंतों की, साधुपुरुषों की और
केवलिप्रणीत धर्म की अवज्ञा करता है, उनकी आज्ञा नहीं मानता है, उनके प्रति श्रद्धावान् नहीं बनता है-वह अनाथ, अशरण होता है । * जो जीवात्मा क्रोध, मान, माया और लोभ करता रहता है; चार कषायों को
पाप नहीं मानता है; वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह में लीन रहता है; इन
पाँच महापापों को पाप नहीं मानता है; इन पापों के त्याग की भावना नहीं रखता है; वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा मन-वचन-काया को अशुभ योगों में, पापकार्यों में प्रवर्तित रखता
है, शुभ योगों में नहीं जोड़ता है, वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य का त्याग नहीं करता
अशरण भावना
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