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या ज्ञान वगैरह का अभिमान आ जायं, तब मृत्यु का क्षणिक चिंतन करते रहो, अभिमान नहीं रहेगा। गर्व विगलित हो जायेगा । कुछ ऐतिहासिक अथवा शास्त्रीय उदाहरण याद रखें, जब मन गर्वोन्मत्त बनें, तब उन उदाहरणों को याद करें। वैसे दो उदाहरण प्राचीनतम याद रखें । एक रामायणकालीन लंकापति रावण का, दूसरा महाभारतकालीन दुर्योधन का । दोनों अपनी अजेय शक्ति पर गर्वोन्मत्त थे, दोनों अपने कुकर्मों का विचार तक नहीं करते थे। दोनों ने परस्त्री को सताया था-एक ने सीताजी को, दूसरे ने द्रौपदी को । युद्ध में दोनों की मृत्यु हुई थी । सब कुछ यहाँ पड़ा रह गया और वे दुर्गति में चले गये । उनको कोई नहीं बचा पाये । न भाई बचा पाये, न पुत्र बचा पाये, न सेना बचा पाई । उनकी देह के साथ सारा अभिमान मिट्टी में मिल गया । दीन-अनाथ और अशरण बने । मृत्यु-यमराज उठा कर ले गया ! बल, बुद्धि, सत्ता और संपत्ति कुछ भी काम नहीं आया । इसलिए ग्रंथकार कहते हैं : अभिमान मत करो । मृत्यु के सामने तुम अशरण हो ।
जिस तरह जंगल में सिंह के पैरों के तले पड़ा हुआ मृग अशरण होता है, वैसे संसार में काल-महाकाल से ग्रसित जीव भी अशरण होता है । गुणनिधान लोग भी चले जाते हैं : __पापी लोगों को जिस तरह यमराज नहीं छोड़ता है, वैसे गुणवान लोगों को भी यमराज उठा कर ले जाता है । इस संसार में जीवों की नियति है जन्म और मृत्यु की । जन्म और मृत्यु के बीच जीवन होता है । जीवन, प्रत्येक जीव का जीवन, आयुष्यकर्म के साथ संबंधित होता है । आयुष्यकर्म समाप्त होने पर जीवन समाप्त हो जाता है । मृत्यु हो जाती है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है -
आउक्खयेण मरणं आउं दाउण सक्कदे को वि । । । तम्ह देविंदो विय मरणा उण रक्खदे को वि ॥ 'आयुष्यकर्म के क्षय से मृत्यु होती है और आयुष्य किसी को कोई भी दे नहीं सकता, इसलिए देवराज इन्द्र भी अपने को मृत्यु से बचा नहीं सकता
__स्वयं इन्द्र भी, अपने आप को मृत्यु से यदि बचा सकता होता तो वह सर्वोत्तम भोगोंवाला स्वर्गवास किसलिए छोड़ता ? अर्थात् इस जीवसृष्टि में कोई भी जीवात्मा अपना आयुष्य, एक क्षण भी बढ़ा सकता नहीं है । देव-देवेन्द्रों से पूजित
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शान्त सुधारस : भाग १
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