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जल रहे थे । घोर चित्कार सुनाई देता था । प्रलय का दृश्य रचा गया था। राम
और कृष्ण माता-पिता को बचा लेने के लिए कृतनिश्चयी थे। उन्होंने लात मारकर नगर का दरवाजा तोड़ दिया । परंतु रथ के पहिये जमीन में फँस गये थे । राम
और कृष्ण भरसक प्रयत्न करने लगे रथ को बाहर निकालने के लिए, परंतु निराश हो गये । उस समय द्वैपायन-देव ने वहाँ प्रकट हो कर कहा : 'अरे राम-कृष्ण, तम्हें यह क्या हो गया है ? मैंने तुम्हें कहा था कि द्वारिका में केवल तुम दो भाई ही बचोगे । तुम दोनों के अलावा कोई भी अग्नि से बच नहीं पायेगा । क्योंकि मैंने मेरा तप बेच दिया है...नियाणा कर दिया है...। वसुदेव-देवकी-रोहिणी की मृत्यु :
देव के वचन सुनकर देवकी और वसुदेव ने कहा : 'अब तुम चले जाओ, तुम दो भाई जीवित रहोगे तो सभी यादव जीवित है । अब हमें बचाने का ज्यादा पुरुषार्थ मत करो। तुमने बहुत प्रयल किया, परंतु भवितव्यता बलवती और दुर्लंघ्य होती है। हम अभागी हैं, हमने भगवान नेमनाथ के पास चारित्रधर्म लिया नहीं...दीक्षा ली नहीं । अब हमें हमारे कर्मों का फल भोगना ही होगा। फिर भी बलरामकृष्ण वहाँ ही खड़े रहे ।
वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने आँखें मूंद ली और बोले : हमें जगद्गुरु भगवान नेमनाथ की शरण हैं । हम अनशन करते हैं । चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं । हे प्रभो, हम आपके शरणागत हैं । अरिहंत, सिद्ध, साधु और अर्हतकथित धर्म की शरण स्वीकार करते हैं । हम किसी के नहीं हैं, हमारे कोई नहीं हैं । इस प्रकार बोलकर वे श्री नवकारमंत्र के ध्यान में लीन बने । उस समय द्वैपायन ने उन पर अग्निवर्षा की। तीनों की मृत्यु हुई और वे देवलोक में उत्पन्न हुए। श्रीकृष्ण की घोर व्यथा-वेदना :
बलराम के साथ श्रीकृष्ण द्वारिका के बाहर निकले । बाहर जो जीर्णोद्यान था, उस उद्यान में गये । वहाँ एक छोटी-सी पहाड़ी थी, उस पर खड़े होकर जलती हुई द्वारिका को देखने लगे। श्रीकृष्ण ज्यादा समय देख नहीं सके। उन्होंने बलराम को कहा : 'भय्या, मैं नपुंसक जैसा बन गया हूँ, धिक्कार है मुझे, मैं असहाय...अशरण बनकर मेरी द्वारिका को जलती हुई देख रहा हूँ । हे आत्मबंधु, जिस प्रकार मैं नगरी की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, वैसे उसको अब जलती
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शान्त सुधारस : भाग १
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