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अपने मन का अनुशासन करते हैं विनयविजयजी । अपने मन को फिटकारते हैं । 'तू मूढ़ है... तू मूढ़ है...' ये शब्द घोर फिटकार के हैं । हे मन तुझे लानत है... कि तू सांसारिक वैभवों का बारबार बिचार करता है... जो वैभव क्षणिक
जो क्षणिक... विनाशी... क्षणभंगुर होता है... उसका विचार ही नहीं करना चाहिए। उस पर ममत्व ही नहीं बाँधना चाहिए । क्षणिक के साथ ममत्व बाँधना मूढ़ता है । मूर्खता है । __ हाँ, जिस शरीर के साथ जीना है, जिस परिवार के साथ जीना है, जिन पौद्गलिक विषयों का भोग-उपयोग करना है, जिस वैभव-संपत्ति के साथ जीना है - उनके साथ ममत्व नहीं बाँधना है ! उनके साथ प्रेम नहीं करना है । उन पर विश्वास नहीं करना है।
प्रश्न : बड़ा मुश्किल लगता है !
उत्तर : मुश्किल को सरल बनाने के लिए तो भावनाओं से भावित होना है ! भावनाओं के माध्यम से, अनित्य-भावना के सहारे मुश्किल काम भी सरल बनेगा । प्रयोग करके अनुभव करें । अनुभव कर के देखें । प्रबुद्ध आत्मा की मनःस्थिति : __बाहर से तो शरीर आदि क्षणभंगुर पदार्थों के साथ ही जीना होगा, परिवर्तन भीतर में, अन्तःकरण में लाना है । क्रान्ति वैचारिक करती है । - जब शरीर रोगग्रस्त हो, शस्त्राहत हो, - जब संपत्ति चली जायें, कम हो जायें, - जब स्वजन मुँह मोड़ लें, पराये बन जायें, - जब मित्र शत्रु बन जायें...
उस समय आपका मन अशान्त, संतप्त और उद्विग्न नहीं बनना चाहिए... बस, इतना ही परिणाम चाहिए अनित्य भावना के चिंतन का । जिस समय मूढ, अबुध और मूर्ख मनुष्य रोता है, घोर दुःख अनुभव करता है, उस समय अनित्यभावना का चिंतक प्रबुद्ध मनुष्य स्वस्थ रहता है, प्रसन्न रहता है । * कोई उसको पूछता है : आपका शरीर इतना रोगग्रस्त हो गया है... हमें बहुत
दुःख होता है।
वह कहता है : शरीर रोगग्रस्त होना ही था, मैं जो हूँ, पूर्ण निरोगी हूँ । मैं | अनित्य भावना
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