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करो!' आधुनिक मनुष्य के विकृत मानस की यह बात है, परंतु इसका परिणाम क्या आयेगा? आल्डस हक्स ली ने 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड में कहा है : इसका परिणाम पक्षाघात में आयेगा, आखिर मनुष्य अपना हो नाश करेगा ।
वास्तविकता का वर्णन करता हुआ एरिक फ्रोम कहता है – इन सभी कामवासनाओं को, आर्थिक अभिगम से सनम उत्तेजित की जाती हैं । इस वासना की भूख, कृत्रिमता से पैदा की जाती योन भूख भी ज्यादातर नैसर्गिक नहीं होती है, उसको कृत्रिम ढंग से उत्तेजित की जाती है । आज मनुष्य के पशुवत् लक्षणों पर ज्यादा महत्व दिया जाता है । _ 'यौन सुख ही सर्वोच्च सुख है और अबाधित यौन सुख मनुष्य को सुखशान्ति देगा, ऐसी मान्यता, वर्तमानकालीन मानसशास्त्र ने रूढ़ कर दी है, यह सर्वथा अनुचित है, उन्मार्ग गामिनी है। इतना ही नहीं स्वच्छंद यौन सुख मनोरूग्णता में ही परिणत होता है । इससे तो मनुष्य की स्वस्थता और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है । ऐसे विपरीत परिणाम, आज पश्चिमी समाज में स्पष्ट दिखायी देते हैं। __ महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को यौन प्रतिबंधों से मुक्त कर देने से वह सख-शान्ति और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त कर लेगा - यह अनुमान सर्वथा गलत सिद्ध होता है । याद रखो कि यौन सुख ही मनुष्य को एक मात्र आवश्यकता नहीं है, मनुष्य की दूसरी अनेक मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकतायें भी होती हैं, जो कि ज्यादा महत्त्व की होती है । यदि वे आवश्यकताएं पूर्ण नहीं होंगी तो मानासक रूग्णता पैदा होगी । आज पश्चिमी देशों की होस्पिटल में आधे से ज्यादे पलंग शारीरिक नहीं, मानसिक रोगियों से भरे पड़े हैं । अब तो भारत में भी मन के रोगी बढ़ रहे हैं । मेंटल होस्पिटलें बढ़ती जा रही हैं । पश्चिम में किशोरों के एवं युवानों की आत्माहत्या का प्रमाण बढ़ गया है । इस से मनोवैज्ञानिक चिंतित हो गये हैं।
इस तरह सभी मानव संबंधों में यौन वृत्ति का ही प्राधान्य देखना भी विकृत द्रष्टि है । प्रेम, मृदुता, तादात्म्य, सहानुभूति, उष्मापूर्ण कोमल व्यवहार वगैरह पवित्र मानवीय अनुभूतियाँ होती हैं । इन को यौन वृत्ति के साथ जोड़ना मूर्खता है । सब कुछ सेक्स के चश्मे से देखना जैसे कि फैशन हो गया है । महापुरूषों के मृदु-प्रेमपूर्ण व्यवहारों में भी ऐसे छिद्रान्वेषी संशोधन किये जा रहे हैं ! परंतु वह मात्र व्यर्थ बौद्धिक व्यायाम है ! | अनित्य भावना
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