________________
-
स्वभावलीना निवसन्ति नित्यं जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम् ॥ सदानन्दमयं शुद्धं निराकारं निरामयम् । अनन्तसुखसंपन्नं सर्वसंग - विवर्जितम् ॥ परमाह्लादसंपन्नं रागद्वेष- विवर्जितम् । सोऽहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः ॥ आकाररहितं शुद्धं स्वस्वस्पे व्यवस्थितम् । सिद्धावष्टगुणोपेतं निर्विकारं निरामयम् ॥ तत्सदृशं निजात्मानं, परमानन्दकारणम् । संसेवते निजात्मानं, यो जानाति सः पंडितः ॥ 'परमानन्द - पंचविंशति में इस प्रकार आत्मा की पहचान करायी गई है। 'शरीर के भीतर रही हुई परम विशुद्ध आत्मा अनन्त सुखमय है, ज्ञानामृत से भरे बादल समान है, अनन्त शक्तिशाली है, इस प्रकार आत्मा का दर्शन करें
1
निर्विकार है, निराहार है, सभी प्रकार के संग - आसंग से रहित है । परमानन्द से परिपूर्ण है और शुद्ध चैतन्य स्वरूप है ।
"
यह परम विशुद्ध आत्मतत्त्व आनन्दरूप है, सभी संकल्प - विकल्पों से मुक्त है । स्वभाव में लीन, ऐसे आत्मतत्त्व को योगीपुरुष स्वयमेव जानते हैं । सदैव आनन्दमय, शुद्ध, निराकार, निरामय, अनन्त सुखमय और सभी बंधनों से मुक्त है आत्मतत्त्व !
परम प्रसन्नता से परिपूर्ण, राग-द्वेष से रहित सोऽहम्' ऐसा मैं, देह में रहा हुआ हूँ जो जानता है वह विद्वान् है ।
आकार - रहित, शुद्ध, स्व-स्वरूप में रहा हुआ, सिद्ध परमात्मा के आठ गुणों से युक्त, निर्विकार और निरामय है, वह आत्मतत्त्व ।
उस सिद्धात्मा के समान अपनी आत्मा को जानता है, वह परमानन्द का कारण बनता है, निजात्मा को इस तरह जो जानता है वह पंडित - विद्वान् है । यह तो सात श्लोकों का अर्थ बताया। अब आत्मा के गुणों की क्रमशः सूचि
१३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
शान्त सुधारस : भाग १
www.jainelibrary.org