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विष्टा... इत्यादि बीभत्स पदार्थों को देखना है, वैसे आत्मा से ममत्व जोड़ने के लिए इसी शरीर में रही हुई निर्मल, निराकार, निरामय, निर्विकार और निराहार आत्मा का दर्शन करना है । ध्यान से ही ऐसा दर्शन हो सकता है ।
ऐसा ध्यान वे ही सत्पुरुष कर सकते हैं, जिनको शुद्ध आत्मस्वरूप में विश्रान्ति प्रिय होती है, उसी में ही रमणता प्रिय होती है । महामुनि देवचंद्रजी ने गाया है - 'आतमतत्त्वालंबी रमता आतमराम,
शुद्ध स्वरुपने भोगे, योगे जसु विसराम ।'
सर्वप्रथम तो स्व-गुणों के चिंतन में मन निमग्न होना चाहिए । बाद में भीतर में रही हुई 'आत्मसत्ता' की ओर देखना है । परभाव से, पुद्गलभाव से मन को सर्वथा मुक्त करना होगा ।
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श्री देवचन्द्रजी ने कहा
ऐसा योगीपुरुष
'स्वगुण - चिंतन - रसे बुद्धि घाले, आत्मसत्ता भणी जे निहाले ।
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तेह समतारस तत्त्व साधे, निश्चलानन्द अनुभव आराधे !
समतारस की, प्रशमरस की अनुभूति करता है और निश्चल आनन्द, परमानन्द पाता है । यही योगीपुरुषों का उत्सव होता है !
जिन योगी पुरुषों की बुद्धि आत्मगुणों के चिंतन में चली जाती है और जिनको आत्मसत्ता ही दिखती है वे योगी अपने आत्मगुणों के आयुध ( शस्त्र) से कर्मों का नाश करते हैं, भरपूर कर्मनिर्जरा करते हैं ।
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'स्वगुण - आयुध थकी कर्म चूरे,
असंख्यात गुण निर्जरा तेह पूरे !'
जैसे जैसे कर्मनिर्जरा होती जाती है, वैसे वैसे आत्मा को अभिनव प्रशमसुख का अनुभव होता जाता है ! वही सत्पुरुषों का 'महोत्सव' होता है ! इसी जन्म में उत्सव मना लो !
योगी - ज्ञानी पुरुषों का उत्सव भीतर में घटित होता है । इस उत्सव का मजा वर्णनातीत... शब्दातीत होता है ! यानी इस प्रशमसुख की अभिनव अनुभूति शब्दों
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शान्त सुधारस : भाग १
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