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में बाँध नहीं सकते ! काव्य में गा नहीं सकते ! यह तो योगीपुरुषों का स्वयं का 'उत्सव' होता है । स्वयं का निजानंद होता है । मोक्षसुख तो दूर है, परंतु वैसा ही प्रशमसुख यहाँ अनुभव करते हैं ।
'दूरे मोक्षसुखं, प्रत्यक्षं प्रशमसुखम् ।
जो साधक यहाँ, इस जन्म में प्रशमसुख का अनुभव नहीं कर सकते वे मोक्षसुख नहीं पा सकते । इसलिए इसी जन्म में प्रशमसुख का अमृतपान करते हुए आत्मोत्सव मनाने के लिए उपाध्यायजी प्रेरणा करते हैं ।
जिस प्रकार पृथ्वी का उत्सव ऋतुओं के द्वारा प्रकट होता है, वृक्षों का उत्सव वसंत द्वारा और वसंत का उत्सव कोयल के कूजन द्वारा व्यक्त होता है । पुष्पों का उत्सव उनकी सुगंध से होता है। आकाश का उत्सव मौन द्वारा प्रकट होता है ! विद्या का उत्सव विवेक द्वारा व्यक्त होता है और योगीपुरुषों का, सत्पुरुषों का उत्सव प्रशमरस के अमृतपान के द्वारा प्रकट होता है ।
आत्मतत्त्व की अनुभूति होने पर योगीपुरुष, सत्पुरुष चिदानन्द से विभोर हो जाता है और गाने लगता है।
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स एव परमं ब्रह्म, स एव जिनपुंगवः । स एव परमं चित्तं स एव परमो गुरुः ॥ स एव परमं ज्योतिः, स एव परमं तपः । स एव परमं ध्यानं, स एव परमात्मकम् ॥ स एव सर्वकल्याणं, स एव सुखभाजनम् । स एव शुद्धचिद्रूपं स एव परमः शिवः ॥ स एव परमानन्दः, स एव सुखदायकः । स एव परचैतन्यं स एव गुणसागरः || परमाह्लादसंपन्नं रागद्वेषविवर्जितम् । सोऽहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः ॥
'स एवं' यानी आत्मा, शरीर में रही हुई आत्मा । वह मेरी आत्मा ही परम ब्रह्म है, वही जिनेश्वर है, वही परम चित्त है और वही परम गुरु है ।
वही मेरी देहस्थित आत्मा ही परम ज्योति है, वही परम तप है, वही परम ध्यान है और वही परम आत्मा है !
अनित्य भावना
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