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ते सही जिनवर होवे रे... अपनी आत्मा को जिनस्वरूप यानी परमात्मस्वरूप देखना और उस पर एकाग्र होना, उनके लिए ही संभव है कि जो अभी मैंने बताया वैसा व्यक्तित्ववाला हो! ___ श्री शान्तिनाथ भगवान की स्तवना करते हुए श्रीमद् आनन्दघनजी ने गाया
मान-अपमान चित्त सम गणे सम गणे कनक-पाषाण रे, वंदक-निंदक सम गणे, इस्यो होय तुं जाण रे... शान्ति. सर्व जग जंतु ने सम गणे, सम गणे तुण-मणि भाव रे,
मुक्ति-संसार बिहु सम गणे, मुणे भव-जलनिधि नाव रे... न मान-सन्मान उनके चित्त में रागजन्य चंचलता पैदा कर सकते हैं, न अपमान-तिरस्कार द्वेषजन्य चंचलता को जन्म दे सकते हैं । योगीपुरुष मानअपमान को समान मानते हैं । __उनके सामने स्वर्ण का ढेर हो या पाषाण के पहाड़ हो, इस योगी की ज्ञानदृष्टि में दोनों समान होते हैं। ___ कोई भक्त उनके चरणों में वंदना करें अथवा कोई उनकी निंदा करें, योगी तो वंदक और निन्दक - दोनों को समान समझता है ! न तो वंदक के प्रेम होता है, न निंदक के प्रति द्वेष होता है !
समग्र विश्व के सभी जीवों को योगीपुरुष समान रूप से देखता है । उनकी ज्ञानदृष्टि में नहीं होता है राजा-रंक का भेद, न श्रीमंत-गरीब का भेद ! समग्र जीवसृष्टि को समान रूप में देखते हैं, यानी हर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में देखते हैं । सभी जीवों का विशुद्ध स्वरूप तो समान ही होता है । । उनके सामने घास हो या मणि-माणक हो, योगी के चित्त में कोई भेद नहीं होता। न घास के प्रति तुच्छता का भाव, न मणि-माणक के प्रति उत्तमता का भाव होता. है । ___ अरे, उनके मन में तो संसार और मोक्ष के बीच भी कोई भेद नहीं होता ! दोनों के प्रति समभाव !
यह है समताभाव, यह है प्रशमभाव ! इस समत्व का उत्सव योगी मनाते रहते हैं अपनी भीतर ! उत्सव मनाते हुए भावविभोर बनकर गाने लगते हैं आनन्दघनजी :
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शान्त सुधारस : भाग १
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