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और, यौवन में पुरूष को स्त्री का आकर्षण, समागम की तीव्र अभिलाषा... स्वाभाविक होती है । वैसी ही बात स्त्री के लिए होती है । स्त्री को पुरुष का आकर्षण प्रबल रहता है । और जब जिसका आकर्षण होता है वह मिल जाता है तब दोनों एक-दूसरे के वश हो जाते हैं। एक-दुसरे के बिना रह नहीं सकते हैं । यौवनकाल में काम-पुरूषार्थ ही प्रधान बन जाता है । ___ ग्रंथकार-काव्यकार उपाध्यायजी को तो युवकों को इतना ही समझाना है कि "तुम्हारा यौवन ज्यादा टिकनेवाला नहीं है... क्षणिक है ! कुछ वर्ष ही टिकनेवाला नहीं है, इसलिए यौवन पर भरोसा मत रखो । - यौवन में भी शरीर रोगग्रस्त बन सकता है और भोग भोगने में अशक्त बन __ सकता है । - यौवन में भी मौत आ सकती है, जीवन समाप्त हो सकता है, - यौवन में प्रिय पात्र का वियोग हो सकता है, - यौवन में निराशा, हताशा घिर आती है... मन डिप्रेशन में डूब जाता है... __ तब भोगसुख भोगे नहीं जा सकते हैं । यौवन व्यर्थ लगता है । यौवन को सार्थक करनेवाले
यौवन में भोगसुखों का त्याग कर, विरक्त बनकर ब्रह्मचर्य का महाव्रत लेनेवाले महामानवों को याद किया करें, तो यौवन में भी भोगवृत्ति पर संयम आ सकता
* काकंदी का धन्यकुमार * राजगृही के शालिभद्र * उज्जयिनी के अवंतीसुकुमाल, * राजकुमार मेघकुमार * रामायण के सुकोशलकुमार * रामायण के राजकुमार वज्रबाहु * मृगापुत्र * नंदिषेण * जंबूस्वामी * स्थूलभद्रजी, * गजसुकुमाल...
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शान्त सुधारस : भाग १
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