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नहीं होगा, वैसे लगाव भी नहीं रहेगा ।
इसी प्रकार उपाध्यायश्री सकलचंद्रजी ने भी अनित्यादि भावनाओं को काव्य में उतारी हैं । बहुत भावपूर्ण काव्यरचना की है, सुनिए अनित्य भावना का प्रारंभ उन्होंने किस प्रकार किया है ।।
मुंझ मा, मुंझ मा, मोहमां मुंझ मा. शब्द वर रुप रस गंध देखी; अथिर ते अथिर तुं, अथिर तनु जीवितं,
समज मन, गगन हरि-चाप पेखी... ? हे आत्मन, तूं श्रेष्ठ वैसे शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श को देखकर (शरीर की पाँच इन्द्रियों के विषयों को) उन में मोहित न हो ! मोहित न हो ! क्यों कि वे सभी पौद्गलिक भाव अस्थिर हैं, अनित्य हैं ! तूं भी अस्थिर है, तेरा जीवन
और तेरा शरीर भी अस्थिर है ! वर्षाकाल में संध्या के समय गगन में इन्द्रधनुष्य को देखना और उसमें तेरे शरीर की एवं जीवन की अनित्यता... क्षणभंगुरता देखना !' संपत्ति की अनित्यता: ___ आयुष्य, शरीर और जीवन की अनित्यता बताकर उपाध्यायजी संपत्तिओं की भी चंचलता बताते हैं । लग्नापदः संपदः ऋद्धि-सिद्धि और संपत्ति, विपत्तिओं के बादल से आच्छादित हैं । वे कहते हैं: संपत्ति होगी तो विपत्ति आयेगी ही ! दूसरी कोई आपत्ति आये या नहीं, भय की आपत्ति तो आती ही है ! और, संपत्ति सदाकाल के लिए मनुष्य के पास रहती भी नहीं है ! सकलचन्द्रजी ने कहा है -
लच्छी सरिय-गति परे एक घर नवि रहे, देखतां जाय प्रभुजीव लेती, अथिर सवि वस्तुने काज मूढो करे जीवड़ो पापनी कोड़ी केती... मुंझ मा. राच मत राजनी ऋद्धिशुं परिवर्यो अंते सब ऋद्धि विसराल होशे... ऋद्धि साथे सवि वस्तु मूकी जते दिवस दो-तीन परिवार रोशे... मुंझ मा.
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अनित्य भावना
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