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बतायी है। शरीर का संबंध आयुष्य के साथ :
शरीर का बना रहना, जीवात्मा की इच्छा पर निर्भर नहीं है, जीवात्मा का जितना 'आयुष्य' होगा, उतनी ही शरीर की स्थिति होती है । शरीर की स्थिति कहें या जीवन की स्थिति कहें ! और, आयुष्यं कर्भ है, आयुष्य-कर्म पूर्वजन्म में बाँधकर ही जीव जन्मता है । उसको मालुम नहीं होता है कि वह कितने दिनों का, कितने महिनों का, कितने वर्षों का आयुष्य लेकर यहाँ जन्मा है ! आयुष्य पूर्ण होने पर जीवन पूर्ण हो जाता है, शरीर का नाश हो जाता है ! आयुष्य अचानक पूर्ण हो जाता है, शरीर का नाश हो जाता है ! आयुष्य अचानक पूर्ण हो सकता है, इसलिए शरीर भी अचानक नष्ट हो जाता है... इसी कारण शरीर को क्षणभंगुर कहा है
और आयुष्य को चंचल' कहा है ! समुद्र की जलतरंगों जैसा चंचल बताया है । वायु की सरसराहट से समुद्र की जलतरंगें कैसी चंचल बन जाती हैं ? कभी देखना... और उसमें आयुष्य की चंचलता का दर्शन करना। उपाध्यायजी ने वैसा दर्शन करके ही गाया है -
आयुर्वायुतरत्तरंगतरलं, लग्नापदः संपदः, सर्वेऽपीन्दिय-गोचराश्चटुलाः संध्याभरागादिवत् । मित्र-स्त्री-स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपमं,
तत्कि वस्तु भवे भवेदिह मुदा-मालम्बनं यत्सताम् ॥ २ ॥ आयुष्य की चंचलता : ___ जब तक शरीर के साथ आयुष्य का संबंध रहता है, तब तक जीवन' बना रहता है । यही तो जीवन है ! शरीर और आयुष्य के संबंध पर जीवन निर्भर है । शरीर, आयुष्य पर निर्भर है ! और आयुष्य चंचल है ! अस्थिर है ! इसलिए शरीर अस्थिर, अनित्य है और इसी वजह से हमारा जीवन अस्थिर, चंचल और विनाशी है !
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने अंतिम उपदेश में कहा है : 'असंखयं जीवियं मा पमायए । जीवन असंस्कृत है । यानी जब जीवन टूटता है, समाप्त होता है, तब किसी भी प्रकार उस को बचाया नहीं जा सकता है । कोई बचा नहीं सकता है।
अनित्य भावना
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