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'यहाँ शास्त्रों का मूल्य नहीं है, अनुभवज्ञान का मूल्य है, यहाँ जनोपदेश का मूल्य नहीं है, स्वोपदेश का मूल्य है ! आप को मोक्ष में प्रवेश नहीं मिलेगा !' ___ भीड़ में से कुछ कृशकाय तपस्वी मनि-संन्यासी आगे आये और कहा - हमने एक-एक, दो-दो महिने के उपवास किये हैं, कई वर्षों से शरीर को कष्ट दिये हैं, कई कष्टदायी व्रत-नियमों का पालन किया है, हमारे लिए मोक्ष का द्वार खोलने की कृपा करें ।।
एक द्वारपाल ने कहा : यह जानना पडेगा कि यह तप, त्याग और व्रत-नियमों का पालन तुमने किस भावना से किया था ? तुम्हारे मन में यश-प्रतिष्ठा और मान-सन्मान पाने की इच्छा तो नहीं थी ? स्वर्ग के सुख पाने के लिए तो यह सब नहीं किया था ? मात्र तपत्याग और व्रत-नियमों का पालन करने वालों को मोक्षद्वार में प्रवेश नहीं मिलता है । तुमने धर्मक्रियायें की, परंतु मन में धर्मध्यान नहीं किया था । इसलिए यहाँ से लौट जाईये। __भीड़ कुछ कम हुई, तो कुछ लोग आगे आये और बोले : हमने हमारा समग्र जीवन परोपकार करने में बिताया है, इसलिए हमें मोक्ष में प्रवेश मिलना चाहिए ।
एक द्वारपाल ने कहा : आपने दूसरे जीवों पर उपकार किये होंगे, परंतु यहाँ मात्र उपकारों की क्रिया का महत्व नहीं है, यह देखना पड़ेगा कि आपने दूसरे जीवों के प्रति मैत्रीभाव, करुणाभाव, प्रमोदभाव, उपेक्षाभाव रखे थे क्या ? जीवमैत्री के बिना किये हुए जीवोपकारों का यहाँ मूल्य नहीं है !
भीड़ चली गई, परंतु सब के पीछे एक मनुष्य खड़ा था, उसको द्वारपालने पूछा : भाई, तूं यहाँ क्यों आया है ? उसने कहा : मुझे मालुम नहीं... कौन मुझे यहाँ ले आया ! मेरे पास कुछ नहीं है । न शास्त्रज्ञान है, न मैने तप किया है, न त्याग किया है । व्रत नियमों का भी पालन नहीं किया है... । यह सब करने के लिए मेरे में शक्ति ही नहीं थी ! हाँ, किसी जीव के साथ मेरी शत्रुता नहीं थी, किसी के साथ मैने बुरा व्यवहार नहीं किया, सभी के प्रति मेरे हृदय में प्रेम है और इस दुनिया के प्रति मझे कोई ममत्व-लगाव नहीं है । परंतु इतने मात्र से इस मोक्षद्वार में प्रवेश पाने की मेरी योग्यता सिद्ध नहीं होती। इसलिए कृपाकर मुझे नर्क का द्वार बताइये।
प्रस्तावना
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