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कर-कर जो जो सुख चाहिए थे, सभी बाँध लिये । सभी जल्दी में थे । सूर्योदय पहले गाँव में पहुँचना था। सभी को एक ही चिंता थी कि कोई सख गठरी में बाँधना रह न जायें ! सुख असंख्य थे और समय अल्प था ! फिर भी हो सके उतनी सुखों की कल्पना कर, उन सभी को बाँधकर...जल्दी जल्दी लोग सूर्योदय पहले घर वापस लौटे। ___ वापस आने पर सभी ने बड़ा आश्चर्य देखा । अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । झोपडी की जगह महल बन गये थे ! सब कुछ स्वर्णमय बन गया था। सुखों की जैसे वर्षा हो रही थी। जिसने जो चाहा था वह सब, सभी को मिल गया था ! __परंतु एक नया आश्चर्य खड़ा हो गया था। सब कुछ मिलने पर भी किसी के चेहरे पर आनंद नहीं था ! चूँकि सभी को अपने पड़ौसी का सुख ज्यादा लगता था और वही बात दुःखी कर रही थी ! पुराने दुःख दूर हो गये थे, नये दुःख पैदा हो गये थे ! दुःख बदल गये थे । नयी चिंतायें सवार हो गई थी । मनुष्य मन तो वैसे ही इर्ष्याग्रस्त रहा था । दूसरों का सुख उनको दुःखी कर रहा था, दूसरों के दुःख उनको खुश कर रहे थे । हालाँकि दूसरा कोई दुःखी नहीं रहा था, परंतु दूसरा कोई दुःखी न हो, तो स्वयं को सुख कैसे मिलता ! __उस गाँव में एक वृद्ध संन्यासी था । वह दुःख छोड़ने और सुख बांधने गाँव के बाहर नहीं गया था । उसके पास कुछ था ही नहीं ! हालाँकि लोगों ने उसको बहुत समझाया था। घोषणा के अनुसार अवसर खोने जैसा नहीं था, परंतु वह वृद्ध योगी नहीं माना था । उसने तो सभी को हंसते हंसते कहा था : जो बाहर है वह सुख नहीं है, आनंद नहीं है, जो आनंद मेरे भीतर है, उसको खोजने बाहर क्यों जाऊँ ? मैने मेरे अन्तःकरण में ही आनन्द देखा है और पाया है !
यह सुनकर लोगों ने उस योगी को पागल माना था, महामूर्ख माना था। लोगों के घर महल बन गये थे । हीरे और मोती पत्थर की तरह रास्ते पर पड़े थे । इतनी समृद्धि होने पर भी उनके मुख पर खुशी नहीं थी, आनन्द नहीं था। तब उस योगी ने लोगों को हंसते हंसते कहा : क्या अभी भी तुम लोगों को तुम्हारी भूल समझ में नहीं आयी ? सुख और आनंद कहाँ है, समझ नहीं आता ? सुख और आनन्द तुम्हारे अनासक्त अन्तःकरण में है । तुम्हारे स्वयं में ही सुख और
प्रस्तावना
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