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आनंद भरे पड़े हैं !'
मन इर्ष्या आदि दोषों से ग्रस्त क्यों ?
जब तक भावनाओं से, 'अनित्य' 'अशरण' आदि भावनाओं से, मैत्री - प्रमोद आदि भावनाओं से मन शुभ और शुभ्र नहीं बनता है तब तक मन में इर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, दंभ, प्रपंच आदि असंख्य दोष रहनेवाले ही हैं ।
कोई मनुष्य तुम्हें शत्रु लगता है कारण ? मैत्री भावना नहीं है !
किसी मनुष्य के प्रति इर्ष्या होती है कारण ? प्रमोदभावना नहीं है ! किसी मनुष्य के प्रति घृणा होती है कारण ? करुणाभावना नहीं है ! किसी जीव के प्रति द्वेष होता है कारण ? माध्यस्थ्य भावना नहीं है ! किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति ममत्व होता है क्यों ? अनित्य भावना नहीं है !
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निर्भय होकर दुष्कृत्य करते हो क्यों ? अशरणभावना नहीं है ! संबंधों के बंधनों में बंधे हो क्यों ? संसार - भावना नहीं है ! अनेकों में सुख लगता है क्यों ? एकत्व भावना नहीं है ! दूसरों को अपने मान कर दुःखी हो क्यों ? अन्यत्व भावना नहीं है ! अपना शरीर प्रिय लगता है क्यों ? अशुचि भावना नहीं है ! पाप-पुण्य कर्मों के विचार नहीं आते हैं क्यों ? आश्रव-भावना नहीं है ! कर्मबंध नहीं करने का विचार नहीं आता है क्यों ? संवर भावना नहीं है । तप करने के विचार नहीं आते हैं क्यों ? कर्म निर्जरा भावना नहीं है !
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धर्म पुरुषार्थ करने की इच्छा नहीं होती है क्यों ? धर्मसुकृत भावना नहीं है ! अनन्त जीवसृष्टि का चिंतन नहीं करते हो क्यों ? लोक स्वरुप भावना नहीं है ।
बोधि नहीं है !
यदि ये सारी भावनायें अंतःकरण में हो, तो इर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, दंभ, प्रपंच आदि दोष रह सकते हैं क्या ? दोषों से मुक्त होने के लिए, मन को, चित्त को, अंतःकरण को दोषरहित करने का एक ही उपाय है, भावनाओं का पुनःपुनः
चिंतन |
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सम्यक्त्व पाने की इच्छा नहीं होती है क्यों ? बोधि दुर्लभ भावना
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शान्त सुधारस : भाग १
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