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मन उलझा है बाह्य सुख-दुःखों में : __इर्ष्या वगैरह दोषों का कारण है सुख-दुःख की कल्पनायें । बाह्य सुख-दुःख की कल्पनायें ही इर्ष्या वगैरह दोषों को पैदा करती है । इस विषय में एक अच्छी कहानी है । अभी आपने जो कहानी सुनी, वैसी ही है यह कहानी, परंतु थोड़ा सा अंतर है।
एक बार एक गाँव में आकाशवाणी हुई। दिव्य घोषणा हुई । परम कृपानिधि परमात्मा तुम्हारे दुःख जानते हैं । तुम लोग किसी न किसी बात को लेकर दुःखी हो, यह बात परमात्मा को मालुम है । तुम्हें अपने से दूसरे लोग ज्यादा सुखी लगते हैं, इसलिए एक अच्छी व्यवस्था की गई है :
कल शाम को, तुम सभी तुम्हारे सुखों का और दुःखों की गठरी बाँधकर, गाँव के बाहर एक विशाल तंबू है, उस तंबू में टाँग देना । फिर शान्ति से वहाँ बैठ जाना । तुम्हारी गठरी बराबर ध्यान में रखना । जब तंबू में प्रकाश हो तब, जिस मनुष्य को तुम ज्यादा सुखी मानते हो, उसकी गठरी उठा लेना । उसमें जो सुख-दुःख होंगे वह तुम्हारे हो जायेंगे । सूर्योदय होने पर घर पर चले जाना। ___ आकाशवाणी के अनुसार सभी ने अपनी अपनी गठरियाँ उस तंबू में टाँग दिये । बाद में सोचने लगे : किसकी गठरी लेंगे ? जिसकी गठरी लेंगे, उसमें सुख के साथ दुःख भी जायेगा । किस के दुःख कैसे होंगे, क्या पता ? दूसरों के दुःख अपने लिए तो अनजान ही होते हैं । अपने दुःख ही अच्छे !' 'Known Devil is better than the unknown Devil.' हमें निश्चित रुप से मालुम हो कि हम से कोई ज्यादा सुखी और कम दुःखी है, उसकी ही गठरी लेना चाहिए । यदि ज्यादा दुःखवाला पोटला हाथ में आ गया तो क्या होगा ?'
इतने में तंबू में रोशनी हुई । सभी ने खड़े होकर अपनी अपनी ही गठरी उठायी।
जाने हुए दुःख ज्यादा अच्छे होते हैं । सुख तो क्षणभंगुर होते हैं । समय जाने पर जिस में सुख प्राप्ति की कल्पना बाँधी थी, वह भी दुःख देने लगता है । सुख और दुःख मात्र मन की कल्पना होती है । मन यदि उसमें ही उलझा हुआ रहता है तो आध्यात्मिक विकास-यात्रा नहीं होती है । बारह भावनाओं का और मैत्री आदि चार भावनाओं का चिन्तन नहीं हो पाता है । इसलिए सुख-दुःख को
प्रस्तावना
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