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अपने-अपने कर्मों के उदय पर छोड़कर, मन को भावनाओं के चिंतन में जोड़ना ही श्रेयस्कर है ।
उपसंहार :
आज इस ग्रंथ की प्रस्तावना के आठ श्लोकों का विवेचन पूर्ण करता हूँ । प्रस्तावना में ग्रंथकार उपाध्यायजी महाराज ने भावनाओं की उपादेयता अच्छी तरह समझायी है । भावनाओं की मनुष्य जीवन में कितनी आवश्यकता है, यह अब ज्यादा समझाना जरुरी है क्या ?
आप विद्वान हो, आप उग्र तपस्वी हो, आप परमात्म भक्त हो आप श्रावक हो या साधु हो, आप कितने भी कायाकष्ट सहन करते हो, परंतु यदि आपके अंतःकरण में भावनायें नहीं है, तो आप शांति, समता और समाधि प्राप्त नहीं कर सकते । दुष्ट विचारों से, गंदे विचारों से आप बच नहीं सकते । आर्तरौद्र, विचार आग जैसे हैं, यह आग 'विवेक' को जला देती है । विषय लोलुपता बनी रहती है, फिर समता कैसे अंकुरित हो सकती है ?
सम्यग्ज्ञान के अभ्यास से मन को उन्नत करते रहो और विवेक- अमृत की वृष्टि से अन्तःकरण को मृदु-कोमल और सुशोभित करते रहो ! ऐसे अन्तःकरण में भावनायें रहेंगी और अलौकिक 'प्रशमसुख का अनुभव कराती रहेंगी । आप सभी ऐसे अनुत्तर प्रशम सुख का अनुभव करते रहो यही मंगल कामना । आज बस, इतना ही
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शान्त सुधारस : भाग १
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