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बिना सोचे-समझे दौड़ते रहेंगे तो वहाँ पहुँचकर मालुम होगा कि यह पाने के लिए दौड़ना आवश्यक नहीं था । और वास्तव में जहाँ पहुँचना चाहते थे, वहाँ पहुँचे ही नहीं हैं ! जहाँ थे वहीं पर हैं ! ऐसी भूले अपने जीवन में नहीं हो, इसलिए सावधान रहना चाहिए । अन्यथा जीवन निरर्थक पूरा हो जायेगा । आयुष्य बहुंत अल्प है, शक्ति मर्यादित है और समय बहुत कम है, इसलिए सजगता के साथ जीना होगा ।
सभी दौड़ रहे हैं... मन से दौड़ रहे हैं, तन से दौड़ रहे हैं ! मुझे लगता है यह सब अंधी दौड़ है । कोई गंतव्य को जानता ही नहीं ! सब भागे जा रहे हैं... हम भी भागते जा रहे हैं ! न मन की चिंता है, न तन की चिंता है ! __जो कुछ पाना है, वह अपने भीतर ही है, अपने अंतःकरण में है । अंतःकरण
को शुद्ध, मृदु और सुशोभित करना है । वहाँ ही आत्मा से परमात्मा तक की प्राप्ति होती है । शान्ति से परम शान्ति वहाँ प्राप्त होती है। इसलिए उस अन्तःकरण में भावनाओं को विकसित करना है । विवेक-अमृत की वर्षा से ही यह काम हो सकेगा। यही विवेक है कि धन-यश-पद-प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना बंध करके, जहाँ हैं वहाँ स्थिर बन कर, ध्यानमग्न होकर अपने भीतर में देखें ! भीतर में अशुभ...तुच्छ...असार विचारों का कचरा दिखाई दें, तो उस कचरे को बाहर फेंक दो और चित्त के उपर शुभ भावनाओं की अमृत वर्षा करते चलो ! अनित्य भावना से लगाकर बोधि-दर्लभ भावनाओं की ओर मैत्री भावना से माध्यस्थ्य भावनाओं की अमृत वर्षा करते रहो! आप का चित्त, आप का अन्तःकरण प्रसन्न, शीतल और आनन्दपूर्ण बन जायेगा । धर्मक्रियाओं के साथ धर्मध्यान आवश्यक : ___ आप अपने चित्त के प्रति केन्द्रित बनें । मात्र बाह्य धर्मक्रियायें करके, संतोष न मान लें । बीते हुए अनन्त जन्मों में धर्मक्रियायें अनन्त बार की, परंतु हमारा मोक्ष में प्रवेश नहीं हुआ ! हम संसार में ही भटक रहे हैं, जन्म-मृत्यु करते रहे हैं । इस विषय में एक उपनय - कथा सुनाता हूँ। ___ एक बार मोक्ष के द्वार पर बड़ी भीड़ जमी थी । सभी मनुष्य थे। सब को मोक्ष में जाना था, परंतु द्वाररक्षक द्वार नहीं खोल रहे थे ! कुछ पंड़ितों ने, विद्वानों ने आगे आकर बोला : हम ज्ञानी है, हमने हजारों शास्त्र पढे हैं, हजारों-लाखों लोगों को धर्मोपदेश दिया है... हमें मोक्ष में जाना है, द्वार खोलो । एक द्वारपाल ने कहा : | ७४
शान्त सुधारस : भाग २
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