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आरौिद्र-परिणामपावक-प्लुष्टभावुक विवेक सौष्ठवे । मानसे विषयलोलुपात्मनां क्व प्ररोहतितमां शमाङ्कुरः ॥ ५ ॥ उपाध्याय श्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस की प्रस्तावना में कह रहे हैं : आर्तध्यान और रौद्रध्यान के क्रूर विचार आग जैसे हैं । वह आग सुंदर विवेक की शोभा को जला देती है । जिसके हृदय में विवेक की शोभा जल गई है वैसे विषयलोलुपी मनुष्यों के हृदय में समता का अंकुर कैसे प्रगट हो सकता है ?
आर्त-रौद्रध्यान आग है : __ जो जलाती है उसे आग कहते हैं । अनेक प्रकार की आग होती है । जो मकान, वस्त्र, लकड़ी, घास वगैरह को जलाती है, वह विश्व प्रसिद्ध आग है । इस आग को सभी लोग जानते हैं, समझते हैं । दूसरी आग होती है वचन की आग, वाणी की आग । कट, कठोर, कर्कश वचन आग जैसे होते हैं । दूसरों के मन को जलाते हैं और कभीकभी वैसे वचन दूसरों को जला देते हैं, जलकर मनुष्य आत्महत्या कर लेते हैं । कोई वैसे कटु वचन सुनकर जलते नहीं, जलकर मर नहीं जाते, परंतु चित्त में भयानक जलन महसूस करते हैं । ___ तीसरी आग होती है विचारों की । जो मनुष्य को स्वयं को जलाती है । कुछ वैसे दुष्ट विचार होते हैं, जो चित्त को जलाते रहते हैं । चित्त की शान्ति को, चित्त की प्रसन्नता को, चित्त के विवेक को जलाते हैं । भीतर से मनुष्य स्वयं जलता है। आर्तध्यान :
एक वैसी आग है आर्तध्यान की। यहाँ ध्यान शब्द का प्रयोग दुष्ट विचारों के विषय में हुआ है । तीव्र कोटि के दुष्ट विचार आर्त-ध्यान कहे जाते हैं । आर्तध्यान में वैसे विचारों का प्रवेश है कि आप लोग सुनकर चकरा जाओगे ! हाँ, हम ही हम विचार करते हैं, अपने ही विचारों से हम जलते हैं, फिर भी हम अपने विचारों को पहचानते नहीं ! मुख्य रूप से चार प्रकार का आर्तध्यान बताया गया है - - इष्ट के संयोग के विचार, - इष्ट के वियोग के विचार, - अनिष्ट के संयोग के विचार, - अनिष्ट के वियोग के विचार ।
प्रस्तावना
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