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बाद में उन्होंने गुरुदेव से क्षमा माँगकर प्रायश्चित्त किया था। मैंने सोचा था - उस साधु की विवेक - शोभा नष्ट हुई थी आर्तध्यान से । क्रोध - रोष - गुस्सा.... आता है आर्तध्यान से । वह साधु शोभाविहीन हो गया था । मनुष्य की शोभा विवेक से होती है, विनय से होती है । वह शोभा बनाये रखने के लिए आर्तध्यान से बचते रहो । प्रिय अप्रिय की कल्पना से मुक्त रहो । इष्ट - अनिष्ट की कल्पना से मुक्त रहो । उपसंहार :
उपाध्यायजी महाराज बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं – विषयलोलुपी मनुष्य के मन में समता - अंकुर कैसे पैदा हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है । विषय लोलुपता ही आर्तध्यान है । पाँच इन्द्रियों के असंख्य विषय होते हैं। किसी भी विषय की इच्छा, स्पहा, तृष्णा पैदा होने पर आर्तध्यान शरू हो जाता है । विषय राग से कषाय उत्पन्न हो जाते हैं । कषाय बढ़ने पर रौद्रध्यान आ जाता है।
मन जब विषय - कषाय से भर जाता है. फिर समता समाधि कहाँ रहेंगे? समता – अमृत का पान कैसे हो सकता है ? वह तो घोर अशान्ति का विषपान ही करता रहेगा । अनंत जन्मों में जीव ने ऐसे विषपान ही किये हैं। यदि इस जीवन में ज्ञानद्रष्टि खुल जायें... तो समता का अमृतपान कर सकते हो । वह तभी संभव हैं, जब विषयलोलुपता दूर हो । विवेक शोभा अखंड़ित हो । विषयलोलपता नष्ट होने पर विवेक शोभा अखंड रहेगी ही। चूंकि विषयलोलुपता नहीं रहने पर आर्तध्यान नहीं रहता है, आर्तध्यान नहीं रहने पर रौद्रध्यान भी नहीं रहता है ।
विषयलोलुपता मिटाने के लिए विषयों के विषय में चिंतन कर निर्णय करें कि - - विषय नाशवंत हैं, क्षणिक हैं, - विषयों का राग घातक होता है, - विषयभोग विषभोग जैसे हैं, - विषयभोगों से कभी भी आत्मा को तृप्ति नहीं होती है ।
इस प्रकार विषयों की अनिष्टता के पुनः पुनः विचार करने से विषयों के प्रति वैरागी बनोगें । विरक्त बनोगें। विषय लोलपता नहीं रहेगी । आर्तध्यान नहीं रहेगा। विवेकशोमा बनी रहेगी और समता-अंकुर हृदय में जन्म लेगा !
आज बस, इतना ही -
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प्रस्तावना
७१ ।।
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