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रुक्मिणी ने कहा : 'हे महात्मन्, मैं आप के साथ मुक्तिपथ पर ही चलूँगी । परंतु मैं तो अज्ञानी हूँ, अबोध हूँ, आपको ही मुझे मुक्ति मार्ग पर चलाना होगा।'
वज्रस्वामीजी ने रुक्मिणी को दीक्षा दी । रुक्मिणी साध्वी बन गई। दर्शनज्ञान - चारित्र की आराधना में लीन बनी । उस ने श्रेष्ठ समता सुख पाया । विवेक - शोभा सुरक्षित रखो :
अपनी बात है हृदय में समता- अंकुर प्रगट करने की । हृदय में विवेक होता है तो ही समता - अंकुर प्रगट होता है। आर्त- रौद्रध्यान विवेक को नष्ट कर देते हैं, इसलिए समता पैदा नहीं हो पाती । इसलिए उपाध्यायजी कहते हैं विवेकशोभा को सुरक्षित रखो । वह शोभा तभी सुरक्षित रहेगी, जब आर्त- रौद्र ध्यान नहीं करोगे ।
गंदे, दुष्ट और अधम विचारवाला मनुष्य अविवेकी बन जाता है । संसारव्यवहार में भी अविवेकी • मर्यादा भ्रष्ट बन जाता है। करीबन् ४० वर्ष पुरानी एक घटना मुझे याद आती है । बंबई में हमारा चार्तुमास था । मैं गौचरी लेने गया था । एक घर में मैने पैर रखा और अटक गया। पिता जमीन पर पड़ा था और पुत्र लातें मार रहा था । मैं भिक्षा लिये बिना निकल गया। लड़का शरमा गया। मेरे साथ पीछेपीछेमौन चलता रहा । उपाश्रय आया । मैं भी उसके साथ एक शब्द भी नहीं बोला था । उपाश्रय में आने के बाद वह मेरे सामने रो पड़ा । बोला : मैं पापी हूँ । मुझे भयंकर क्रोध आया... मैने अपने पिता को... । वह रोता रहा । वह विवेक भ्रष्ट हुआ था न ? विवेक तो पितृभक्त, मातृभक्त बनने की प्रेरणा देता है । वह तो पितृद्वेषी बन गया था ! चूँकि उसके मन में आर्तध्यान आ गया था ! फिर वह समता कैसे रख सकता था ?
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एक साधु अपने गुरुदेव के साथ क्रोधावेश में औद्धत्यपूर्वक बोल रहे थे । गुरुदेव मौन हो सुन रहे थे । सांधु की अनुचित इच्छा गुरुदेव कैसे पूर्ण कर सकते थे ? कुछ समय बोलने के बाद वह साधु अपनी जगह आकर बैठ गया । मैं भी वहीं पर बैठा था । बोलने वाले साधु मेरे से बड़े थे । उपाश्रय में स्तब्धता छा गयी थी। मैं आधे घंटे के बाद खड़ा हुआ और उस साधु के पास गया । इशारे से उनको एक कमरे में ले गया । हम बैठे । मैं मौन रहा । उस साधु ने ही कहा : आज रोष में... क्रोध में मैने गुरुदेव की आशातना कर दी। मैंने विनय - विवेक खो दिया। मुझे मेरी भूल महसूस होती है। मैने कहा : 'गुरुदेव से क्षमा माँगो । प्रायश्चित्त करो। आप तो ज्ञानी हो...। उन्होंने कहा : 'ज्ञानी नहीं हूँ, घोर अज्ञानी हूँ... अशान्त हूँ...
अपराधी हूँ... ।
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शान्त सुधारस : भाग १
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