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१. जो इष्ट होता है, प्रिय होता है वह हमें मिले - इस विषय में मनुष्य सोचता रहता है । जो इष्ट और प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति, मनुष्य के पास होती है, वह उसके पास बनी रहे, यह भी सोचता रहता हैं । इस चिंतन में, ऐसे विचारों में प्रायः हिंसा, असत्य, चोरी, अनीति, अन्याय... वगैरह पापों का समावेश हो ही जाता हैं | इष्ट और प्रिय वस्तु या व्यक्ति सहजता से नहीं मिलता है तो मनुष्य गलत रास्ते से पाने का प्रयत्न करता है । भरत चक्रवर्ती को बाहुबली का राज्य मांगने पर नहीं मिला, बाहुबली ने भरत की आज्ञांकितता नहीं मानी तो भरत युद्ध करने तत्पर हो गया था न ? युद्ध यानी हिंसा ! कुछ वर्ष पूर्व अमरीका ने इराक पर आक्रमण कर दिया था न ? कैसा भयानक युद्ध हुआ था ? क्यों ? अमेरिका इराक पर अपनी सत्ता चाहता था ! जैसे राष्ट्रीय स्तर पर यह होता है, वैसे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसा होता है । इष्ट और प्रिय के संयोग की इच्छा करना और प्राप्त इष्ट और प्रिय की रक्षा के विचार करना, आर्तध्यान नही है ।
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२. दूसरा प्रकार है आर्तध्यान का, इष्ट और प्रिय के वियोग के विचार । मनुष्य के पास जो इष्ट और प्रिय होता है, मनुष्य नहीं चाहता कि वह चला जायें, नष्ट हो जायें । प्रिय वस्तु हो या प्रिय व्यक्ति हो । मनुष्य ऐसी चिन्ता कर दुःखी होता है ! एक भाई इसलिए दुःखी था, अशान्त था, चूँकि उसको अपना एकलौता बेटा प्रिय था ! और वह नहीं चाहता था कि उसका वियोग हो ! उसकी मृत्यु हो.... अपहरण हो... वगैरह ! पुत्र नहीं था तब भी दुःखी था, पुत्र प्राप्त होने पर भी दुःखी है । प्रिय के विरह का भय दुःखी करता है । वैसे एक भाई को भाग्य से १० लाख रुपये मिल गये । वैसे वह दरिद्र था, दुःखी था । १० लाख मिलने के बाद भी वह दुःखी है । ये रुपये चले गये तो ? दुनिया में धन चले जाने की घटनायें बनती रहती हैं, जब वह सुनता है, अखबार में पढ़ता है, तो अशान्त बन जाता है। आर्तध्यान अशान्त बनाता ही है। आर्तध्यान करनेवाले अज्ञानी मनुष्य के पास तत्त्वज्ञान तो होता नहीं ! तत्त्वज्ञान के बिना शान्ति मिलती नहीं ! सत्ताधीश अपनी सत्ता के वियोग की कल्पना से दुःखी होता है, धनवान् अपनी संपत्ति चले जाने की कल्पना से दुःखी होता है,
प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा चली जाने की कल्पना से दुःखी होता है,
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माता-पिता अपने प्रिय संतान के वियोग की कल्पना से दुःखी होते हैं, बच्चा अपना प्रिय खिलौना चला न जायें, इसलिए चिंतित रहता है,
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शान्त सुधारस : भाग १
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