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वर्णन करता । माधोजी की आँखों में से अविरत अश्रुधारा बहती रहती । कथा पूर्ण होने पर माधोजी चला जाता । इस प्रकार मध्यरात्रि का हमारा मिलन चलता
रहा ।
लंकाकांड पूर्ण हुआ । राम वापस अयोध्या आये । गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को राजसिंहासन पर आरूढ़ किये, अभिषेक किया। उसी रात में माधोजी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे मेरे ही घर में ले गया । पुस्तक और लालटेन लेकर मैं घर में गया । आषाढ़ महीने की शुक्ला नवमी थी। माधोजी ने आठ वर्ष और सात महीने के बाद मुँह से आवाज दी और मुँह में से काले पाषाण का शालिग्राम बाहर निकाला । मुझे बताते हुए बोले - 'देख ले यह गुरुप्रसादी !' शालिग्राम और ११ रुद्राक्ष की माला को मैंने दो हाथ जोड़कर भावपूर्वक प्रणाम किया । माधोजी को भी मैंने प्रणाम किया। माधोजी ने शालिग्राम मुँह में रख दिया, माला हाथ पर बाँध ली, अद्भुत अट्टहास किया और चल दिये ।
उस दिन के बाद हमारी मुलाकात घर में होने लगी । कथा पूर्ण होने पर मैं उनको कुछ प्रसाद देता, वे प्रसन्नता से खाते । धीरे-धीरे उनको मेरी मुमुक्षता पर विश्वास हुआ और माधोजी अपने दुष्कृत्यों की कथा मुझे सुनाने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने चोरी और व्यभिचार के दुष्कृत्य मुझे सुनाये । अनेक प्रसंग सुनाये। बाद में घंटीयाली तलावड़ी के ऊपर सद्गुरु का संपर्क कैसे हुआ... वह कहानी भी सुनायी । गुरुदेव की बात करते-करते वे द्रवित हो जाते और आँसू बहाते ।
उनको तुलसी - रामायण सुनने में आनंद आता । मैं धीरे-धीरे सरल ग्रामीण भाषा में सुनाता । वे संपूर्ण निरक्षर थे । बस, सुनते रहते । बार-बार वे पाँच पांडवों की कथा कहने का आग्रह करते । मैं वह कथा उनको सुनाता । उन्होंने मुझे कहा था 'अपनी इस ज्ञानगोष्ठि की बात किसी को कहना नहीं । मैंने
उनकी मृत्यु तक यह बात किसी को नहीं कही थी । एक वर्ष तक उनके साथ मेरा सहवास रहा था । उनके जीवन में किसी प्रकार का दूसरा परिवर्तन नहीं आया था । वे वैसे ही निश्चल, निष्काम और निर्द्वद्व रहे थे ।
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जिस दिन मुझे गाँव छोड़कर जाना था, मैंने उनको कहा था 'माधोजीभाई, अब मैं जाऊँगा ।' सुनकर वे हँसे थे । उन्होंने मुँह में से शालिग्राम निकालकर मुझे दर्शन कराये। मैंने दंडवत् प्रणाम किये। वापस उन्होंने मुँह में शालिग्राम रख दिया, अट्टहास किया और चले गये ! जैसे उनका और मेरा कोई संबंध ही न हो वैसे निर्लेप बनकर चले गये ।
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