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अच्छा जीवन-परिवर्तन तभी होता है, जब मोह का बंधन टूटता है । चारों प्रकार के मोह का बंधन टूट जाता है, तब सर्वप्रथम मनुष्य में समत्व आ जाता है । दुनिया के प्रति उदासीनता आ जाती है । दुनिया स्वप्नवत् दिखने लगती है । विचारों की दुनिया बदल जाती है । विचारों में नहीं रहते हैं विकार, नहीं रहती है उत्तेजना । विचार- धारा अन्तर्मुखी बन जाती है । बाह्य जगत से उसका संबंध टूट जाता है । उपाध्यायजी ने इसी ग्रंथ के अंतिम काव्य में जो बात लिखी है -
परिहर परचिन्ता परिवारम्
चिन्तय निजमविकारम् रे... वह बात बन जाती है। परपदार्थों की चिंताओं को छोड़ दे और अपने अविकारी स्वरूप का चिंतन कर | मोह का बंधन टूटने पर ही यह बात बनती है । माधोजी के अंतिम १२ वर्ष के जीवन में यही बात बनी थी न ? अपने ही स्वरूप में मस्त रहे थे । दुनिया की कोई परवाह नहीं की । जिसको जो मानना हो मानें ! पागल मानना हो तो पागल माने और जड़भरत मानना हो वह जड़भरत माने । दुनिया से कुछ लेना -देना ही नहीं था ! दुनिया से कुछ मतलब ही नहीं था।
हमें तो दुनिया से मतलब है ! लेना-देना है ! दुनिया हमें सज्जन माने... सत्पुरुष मानें... ऐसी हमारी इच्छा होती है । उपसंहार :
ग्रंथकार उपाध्यायजी बारह भावनाओं का श्रवण करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि ये ऐसी भावनाएँ हैं कि जिनका श्रवण करने मात्र से मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है । मोहवासना दूर होने पर समताभाव प्रगट होता है । महत्त्व की बात है मोहवासना को मिटाने की ।
मूलभूत बात उन्होंने यहाँ कह दी है । इसके पहले जो बात उन्होंने 'यदि भवभ्रमखेद... वाली कही है, वह बात भी तभी संभव हो सकती है जब मोहवासना दूर होती है । वैराग्य और मोक्षप्रीति, मोहवासना टूटे बिना संभव ही नहीं है । __ हालाँकि ये बारह भावनाएँ ऐसी हैं और उपाध्यायजी ने इस प्रकार गेय काव्यों में रची हैं कि सुननेवालों की मोहवासना नष्ट हो ही जायें ! परंतु सुननेवालों का उपादान योग्य होना चाहिए । निमित्त (यह ग्रंथ) तो श्रेष्ठ है ही ! योग्य-सुयोग्य
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शान्त सुधारस : भाग १||
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