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भावनाओं का मंथन भी हो जाता है ! हरिभद्रसूरिजी इस चिंतनयात्रा में चल पड़े । उनका क्रोध उपशान्त हो गया । उनका संताप दूर हो गया। उनकी वैर की आग बुझ गई और वे गुरुदेव के पास पहुँच गये । पश्चात्ताप की आग में वे विशद्ध बने । प्रायश्चित्त ग्रहण कर वे स्वस्थ बने ।
उपाध्यायश्री विनयविजयजी, इस शान्तसुधारस ग्रंथ की रचना का प्रयोजन बताते हुए यह बात कहते हैं कि भावनाओं से ही शान्ति प्राप्त होती है । शास्त्रों से, तप से, दान से... और दूसरी धर्मक्रियाओं से पुण्य प्राप्त होगा, परंतु शान्ति नहीं ! मन की शान्ति, चित्त का उपशम भाव भावनाओं की रमणता से ही प्राप्त होता है और इसीलिए वे इस ग्रंथ की रचना करते हैं । भावपूर्ण गीतों में वे भावनाओं का चिंतन प्रवाहित करते हैं । संसार : मोह-विषाद के जहर से व्याप्त :
रोग होते हैं तो औषधों की आवश्यकता होती है । संसार में अनेक-असंख्य रोग भरे पड़े हैं । शारीरिक रोगों की मैं यहाँ बात नहीं करता हूँ, मानसिक रोगों की बात करता हूँ । आध्यात्मिक रोगों की बात करता हूँ। उन सभी रोगों का उद्भव मोहं से होता है । मोह का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान यानी अंधकार । यह विश्व, यह संसार मोहान्धकार से व्याप्त है । उपाध्यायजी ने तो मोह को अंधकार नहीं, जहर कहा है, विष कहा है । सारा संसार मोह-विष से व्याप्त है । संसार की हवा मोह के जहर से जहरीली बनी हुई है । परंतु यह बात आपके मन में, आपकी बुद्धि में जंचती है क्या ? आपको लगता है कि आपके मन पर मोहविष का असर है ? 'मेरे मन पर, चित्त पर मोह-जहर का असर है या नहीं, इस बात का निर्णय कैसे करोगे? निर्णय करना होगा । निर्णय करने के लिए एक बात का विचार करना है । 'मेरे मन में किसी प्रकार का विषाद है क्या ? किसी प्रकार का खेद-उद्वेग है क्या ?. किसी प्रकार का भय है क्या ? यदि है, तो निश्चित रूप से मोह-विष का असर है आपके मन पर। न च सुखं कृशमपि जिस मन में मोह-विष का असर होता है उस मन में अंश मात्र भी सुख नहीं होता है ! आप कितने भी उपाय करें...भौतिक, धार्मिक... परंतु आपको मानसिक सुख नहीं मिलेगा। जब तक मोह का विष रहेगा तब तक सुख नाम का तत्त्व आप नहीं पा सकोगे । सर्व प्रथम मोह-विष को दूर करना होगा । मोह-विषाद को मिटाना होगा।
प्रस्तावना
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