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करता है यह शब्द । क्या मेरा मन पवित्र है ? निर्मल है ? आध्यात्मिक जागृति में आत्मनिरीक्षण उपयोगी तो है ही, अनिवार्य होता है। __ मन सर्वथा निर्मल रहे, यह संभव नहीं है । कुछ बातों को लेकर मन पवित्रनिर्मल रह सकता है । वैसी एक बात है तत्त्व-श्रवण की अभिरुचि ! तत्त्वश्रवण करना, सभी मनुष्यों के लिए संभव नहीं होता । कम लोग ही तत्त्व-श्रवण करने की इच्छा रखते हैं । दुनिया में ज्यादा लोग विकथा-श्रवण के ही अभिलाषी होते हैं । सुमनसों संबोधन ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त नहीं है । आप लोग जो यहाँ शान्तसुधारस सुनने आ रहे हो, उनके लिए यह संबोधन उपयुक्त है । आपका मन अच्छा है, इसलिए आप शान्तसुधारस' सुनने आ रहे हो । अथवा, शान्तसुधारस सुनते-सुनते आपका मन पवित्र बनेगा । निर्मल बनेगा ! बस, आपका दृढ़ प्रणिधान होना चाहिए कि 'मुझे मेरा मन पवित्र बनाना है । शान्तसुधारस' का प्रतिदिन श्रवण करते रहो । निर्मल बनेगा ही। बारह भावनाओं को हृदयस्थ करें :
उपाध्यायजी कहते हैं कि बारह भावनाओं को अपने चित्त में स्थापित करें । बारह भावनाओं को सुनने मात्र से हृदय पवित्र होता है । ये बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं :
अनित्यत्वाशरणे भवमेकत्वमन्यताम् । अशौचमाश्रवं चात्मन् ! संवरं परिभावय ॥ कर्मणो निर्जरां धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् । बोधिदुर्लभतामेता भावयन् मुच्यसे भवात् ॥ १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आव, ८. संवर, ९. कर्म निर्जरा, १०. धर्मसुकृत, ११. लोकस्वरूप और १२. बोधिदर्लभ भावना । ये बारह भावनाएँ हैं । इन सभी भावनाओं को विस्तार से समझाना है । उपाध्यायजी ने एक-एक भावना के विषय में श्लोक और गेय काव्यों की रचना की है । संस्कृत भाषा में इन काव्यों की रचना रसप्रचूर है । अद्वितीय है।
उपाध्यायजी चाहते थे कि हर मुमुक्षु आत्मा इन भावनाओं को हृदयस्थ करें । गद्य की बजाय पद्य-काव्य, हृदय को शीघ्र स्पर्श करता है । काव्य हृदय में जल्दी प्रवेश कर पाता है । इसमें भी जो काव्य रसमय होता है, जिस काव्य
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शान्त सुधारस : भाग १
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