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संबंधों के परिवर्तन होते हैं, जैसे कि पुत्र पिता बनता है, पिता पुत्र बनता है, माता पुत्री बनती है, पुत्री माता बनती है, मित्र शत्रु बनता है, शत्रु स्वजन बनता है .... यह परिवर्तन मोहान्ध जीव नहीं देख सकता है, नहीं समझ सकता है ।
* मोहासक्त जीव आत्मतत्त्व को नहीं समझ सकता है । मैं आत्मा हूँ... ज्ञान-दर्शन मेरे गुण हैं, आत्मा के अलावा सब मात्र ममत्व है, व्यर्थ है... कल्पना है,' यह परम सत्य का आभास भी मोहान्ध जीव को नहीं होता है । वह तो, जो अपना नहीं होता है, उसको अपना मानने की मूर्खता करता है । परभाव की लालच में डूबा हुआ रहता है । इन्द्रियजन्य आवेगों में परवश रहता है। जो परायी वस्तु होती हैं, उनको अपनी मान कर वह विविध पीड़ाओं को निमंत्रित करता है ।
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* मोहासक्त अविवेकी जीव परचिंता करता रहता है, परचिन्ता कर वह स्वयं दुःखी होता है । आत्मा से भिन्न जड़-चेतन द्रव्यों का विचार करता हुआ वह कभी उन्मत्त होता है, कभी उदास होता है, कभी प्रसन्न होता है, कभी नाराज होता है, कभी हर्ष से नाचता है, तो कभी शोक से आक्रंद करता है । वह नहीं समझ सकता कि क्या अपना है, क्या पराया है ? वह कभी सोच ही नहीं सकता है कि उसने नरक गति में और तिर्यंच गति में कैसे-कैसे घोर दुःख पाये हैं ? वह काटा गया है, उसके शत- सहस्र टुकड़े हुए हैं, वह जलाया गया है.... मारा गया है... अनंत यातनाएँ उसने भोगी हैं... परंतु मोहमूढ़ता उसे सोचने नहीं देती ।
वह
* मोहाच्छादित बुद्धिवाला मनुष्य अपने शरीर के भीतर देख नहीं सकता है । भीतर में जो मल-मूत्र है, हड्डियाँ और मांस-मज्जा है... गंदगी है... वह नहीं देख सकता है । शरीर की यह अशुद्धि, मलीनता... कभी भी, कैसे भी दूर नहीं हो सकती है यह बात मोहासक्त मनुष्य को कोई समझा सकता नहीं है । वह तो पुनः पुनः स्नान कर शरीर को स्वच्छ करने का प्रयत्न करता रहता है। चंदन का विलेपन कर शरीर को सुगंधित करता रहता है ! वह समझता ही नहीं कि शरीर की अशुचि पानी से या चंदन से दूर होती ही नहीं है ।
वह नहीं समझ पाता है कि शरीर अपनी स्वाभाविक दुर्गंध छोड़ता नहीं है । शरीर को कितना भी सुशोभित करो, श्रृंगार सजाओ, हृष्ट-पुष्ट करो.... परंतु वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा । शरीर स्वयं तो मलिन है ही, उसके संपर्क में आनेवाले पवित्र पदार्थों को भी वह गंदा कर देता है ! ऐसे शरीर में पवित्रता की कल्पना करना ही बड़ी अज्ञानता है । मूढ़ता है। मोहमूढ़ मनुष्य शरीर के
शान्त सुधारस : भाग १
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