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विषय में सदैव व्यग्र बना रहता है । उसको समता - सुधा का स्वाद कैसे आ सकता है ?
* मोहमूढ़ मनुष्य नहीं समझता है कि वह प्रतिसमय विविध आश्रवों से भरा जा रहा है। आश्रवों से यानी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमादों से वह अस्थिर - चंचल और गंदा बना है। कौन समझाये उसको कि आश्रव प्रतिक्षण तुझे कर्मों से भर रहा है । जब आश्रवों को ही नहीं समझता है तो फिर आश्रवद्वारों को रोकने की तो बात ही कहाँ ? वह मोहान्ध जीव नहीं समझता है आश्रवों की गतिविधि को । नहीं जानता है आश्रवों के ४२ प्रकारों को । आश्रवों को रोके बिना समत्व कैसे पाया जा सकता है ?
* मोहासक्त मनुष्य को आश्रवद्वारों को बंद करने की बात कौन समझाये ? वह आंतरदृष्टि से समालोचन कर ही नहीं सकता । 'संवर' तत्त्व वह समझ नहीं सकता है । इन्द्रियों के, विषयों के एवं असंयम के आवेगों को वह दबा नहीं सकता है, नियंत्रित नहीं कर सकता है। नहीं वह सम्यकत्व को जानता है, न वह मिथ्यात्व की दारुणता को पहचानता है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान करता रहता है...। आर्त- रौद्रध्यान की भयानकता को वह जानता नहीं है । न वह क्षमानम्रता की विशेषता जानता है, न सरलता और निर्लोभता के महान् लाभ जानता है । वह मन-वचन-काया के अशुभ योगों में, अशुभ प्रवृत्तियों में उलझा हुआ रहता है । दुर्गति के गलत रास्ते पर वह चलता रहता है ।
* जिस प्रकार मोहासक्त जीव आश्रव और संवर को नहीं समझता है, वैसे वह 'निर्जरा' को भी नहीं समझता है । कभी-कभी वह तप कर लेता है परंतु 'मुझे कर्मों का नाश करना है, वह बात वह नहीं समझता है। तप करने से मेरी प्रसिद्धि होगी, मुझे यश मिलेगा... मुझे मूल्यवान भेट मिलेगी... ऐसी तुच्छ इच्छाओं से वह तप करता है । ज्यादातर मोहांभ मनुष्य तो शरीर के व्यामोह के कारण तप करते ही नहीं ! उनका आनन्द खाने-पीने में होता है । दिन-रात वे खाते रहते हैं, भक्ष्य - अभक्ष्य खाते रहते हैं । तप के प्रभावों को वे लोग मानते ही नहीं । तप की वे हमेशा उपेक्षा करते रहते हैं । कर्म... कर्मनाश... कर्मनिर्जरा जैसे शब्द वे जानते ही नहीं ! मोह का यह दुष्प्रभाव है I
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* मोह से आक्रान्त मनुष्य धर्म के प्रति भी उदासीन होता है। धर्म के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा नहीं होती, प्रेम नहीं होता । वह धर्म के सुंदर प्रभावों को जानता नहीं है, मानता नहीं है । धर्मभावना से प्रेरित होकर न वह दान देता है,
प्रस्तावना
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