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सुमनसो मनसि श्रुतपावना, निदधतां द्वयधिका दश भावनाः ।
यदिह रोहति मोहतिरोहिता-द्भुतगतिर्विदिता समतालता ॥४॥ श्रोता : पवित्र मनवाले :
उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' ग्रंथ की प्रस्तावना में कह रहे हैं : हे पवित्र मनवाले सज्जनों ! सुनने मात्र से अन्तःकरण को पावन करनेवाली बारह भावनाओं को तुम्हारे चित्त में स्थापित करें । इससे एक बड़ा लाभ तुम्हें होगा ! मोह से आच्छादित बनी हुई समता-लता, पुनः नवपल्लवित होगी । मोह का आच्छादन दूर होगा।
उपाध्यायजी ने श्रोताओं को कैसा सुंदर संबोधन किया है – 'सुमनसो! पवित्र मनवाले ! उन्होंने श्रोताओं के मन की कौन-सी पवित्रता देख ली होगी? पवित्रता देखे बिना तो वे कैसे कहते ? उन्होंने कहा है, इसलिए मानना पड़ेगा कि उन्होंने श्रोताओं के मन में पवित्रता देखी है ! हमें तो अनुमान ही करना होगा ।
पहला अनुमान तो यह है कि उन्होंने श्रोताओं में धर्मश्रवण की अभिरुचि देखी थी । एक धर्मगुरु के पास मनुष्य जाता है, धर्म की बातें सुनने जाता है । संसार की आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त होने जाता है... यह बात, उसके मन की पवित्रता का सबूत है । धर्मश्रवण की अभिरुचि सामान्य बात नहीं है, साधारण बात नहीं है, एक विशिष्ट गुण है । गुणानुरागी उपाध्यायजी, इस विशिष्ट गुण का विशिष्ट मूल्यांकन करते हैं । इस गुणवालों को वे पवित्र मनवाले कहते हैं; यह सर्वथा उचित लगता है।
दूसरा अनुमान यह है कि वक्ता, श्रोताओं को श्रवण-अभिमुख करने के उपाय करता है । अनेक उपाय होते हैं । एक उपाय यह है कि श्रोताओं को प्रेम से संबोधित करो ! भले, श्रोता का मन पवित्र न हो, परंतु पवित्र बनाने के लिए कहना पड़ता है पवित्र ! लड़का अच्छा नहीं है, फिर भी माँ अपने लड़के को कहती है : मेरा बेटा अच्छा है !' क्यों ? इसलिए कि वह अपने लड़के को अच्छा बनाना चाहती है।
तीसरा अनुमान यह है कि साधुपुरुष, श्रोताओं को अच्छे शब्दों में संबोधित करते हैं । आगम ग्रंथों में वैसे संबोधन पढ़ने में आते हैं - 'हे देवाणुप्पिय... हे महानुभाव...' इत्यादि ! वैसे उपाध्यायजी ने यहाँ श्रोताओं के लिये सुमनसों शब्द का प्रयोग किया है । शब्द बहुत अच्छा है । आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित
।
प्रस्तावना
४१ ।
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